क़ालल अशरफ़:

अस्सिमाअ तवाजिद उस सूफिया फि तफहिमुल मआनी अल्लज़ी यतसव्वूर मन अला सवात अल मुख्तलेफ़ा

हज़रत सैय्यद मख्दूम अशरफ़ सिमनानी रज़‍िअल्‍लाह अन्‍हो, ‘लताएफ अशरफ़ी’ में फ़रमाते हैं कि मुख्तलिफ़ आवाज़ों को सुनकर फ़हम में जो मअानी पैदा होती हैं, उनके असर से सूफ़ियों का वज्द करना सिमा है।

सुल्तानुल मशाएख़ फ़रमाते हैं कि जब तक ये इल्म न हो जाए कि सिमा क्या है और सुनने वाला कौन है, तब तक सिमा न हराम है न हलाल है।

सिमा इ बिरादर बगोयम के चिस्त

अगर उसतमा रा बदानम के किस्त

मैं इसी वक्त बता सकता हूं कि सिमा क्या है जबकि मुझे ये मालूम हो जाए कि सुननेवाला कौन है।

आगे फ़रमाते हैं कि जिस मसले में हिल्लत व हुरमत मुख्तलिफ़ फ़िया हो उसमें दिलेराना और बेबाकाना गुफ्तगू नहीं करना चाहिए, बल्कि ग़ौरो तातिल के बाद इस सिलसिले में बात करना चाहिए। ऐसे ही मुख्तलिफ़ फ़िया मसला है, महफ़िले सिमा। इसको न तो मुतलक़न हराम कहा जा सकता है और न बग़ैर क़ैद के हलाल कहा जा सकता है।

सिमा, ख़ुदा के छिपे हुए भेदों में एक भेद है और उसके नूर में से एक नूर है। वही खुशनसीब व नेक है, जिसका दिल सिमा का आफ़ताब बन जाए यानी सिमा का हक़ीक़ी ज़ौक़ व शौक़ हो।

इश्क़ दर परदा मी नवाज़द साज

आशिक़ी को के बशनूद आवाज़

हमा आलम सदाए नग़मए उस्त

के शनेद इब्न चुनैन सदाए दराज़

इश्क़ ने दरपरदा साज़ छेड़ रखा है, वो आशिक़ कहां है जो इस आवाज़ को सुनें। ये तमाम कायनात इसी नग़मए ‘कुन’ की आवाज़ है, किसी ने इतनी लंबी तान कभी सुनी है।

तालिब और इसके राज़ को जानने वाले आलिम को चाहिए कि सिमा की तरफ तवज्जो करें। सिमा की तारिफ़ बुजुर्गाने दीन ने इस तरह की है – ”बेशक सिमा एक अमरे मख्फ़ी, एक नूरे जली और सिर्रुन अलियुन है। इस राज़ से वही आगाह हो सकते हैं, जो अहले तहक़ीक़ हैं और इल्म में मज़बूत हैं और अल्लाहवाले हैं। साहिबाने मारेफत हैं, हक़ से जुड़े हुए हैं और ख़ुदा के साथ हैं। जिनके लिए इब्तेदा में ज़ौक़ है और इन्तहा में शुरब है।”

मतरब बराह परदा दरासाजे उदरा

दर दा बगोश होश दर्दो सरूद रा

अज़ नग़मए सरूद के गोयन्द फ़ैज़ उस्त

दरपर्दाए सिमा दरआवर हसूद रा

ऐ मतरब साज़े ओर को परदा के रास्ते से अन्दर ले आ और दर्दो सोज़ की मौसिक़ी को गोशए होश से सुन। नग़माए मौसिक़ी को इसका फ़ैज़ कहते हैं, सिमा के परदे में इसे हासिदीन ले आए हैं।

और कुछ लोग वो हैं जो सिमा से मअज़ दिल कर दिए गए हैं। ”वो सुनने की जगह से दूर कर दिए गए हैं” (क़ुरान 26:212)। अगर अल्लाह उनमें खूबी पाता तो उन को ज़रूर सुनाता अगर उनको सुनवा भी दिया जाता, तब भी वो पीठ फेर लेते। ये वही लोग हैं जो ‘अरबाबे सिमा’ के मुन्किर हैं, इनमें कुछ तो सिमा को फासिक़ कहते हैं और कुछ कुफ्र का फतवा भी लगा देते हैं, और कुछ लोग इन्हें बिदअती भी कहते हैं। बहरहाल उनके दर्मियान असहाबे सिमा पर फतवों और इल्ज़ामात पर एक राय नहीं है।

ख्वाह खलक़ी गबरख्वान वख्वाह तरसा ख्वाहमुग़

सज्दागाहे क़िब्लए अब्रो बतो नतवान गुज़ाश्त

अज़ हमा दरबगुज़रम नगज़ारमश मारा बाव

अज़ जहान बतवान गुज़शतन रूई तू नतवान गुज़ाश्त

लोग मुझे गबर बहे ख्वाह तरसा ख्वाह मुग़ कहे, कुछ भी कहे, मैं तेरे क़िब्ल ए अबरू को, जो मेरी सज्दागाह है, नहीं छोड़ सकता। मैं सब को छोड़ दूंगा और सब से मुंह फेर लूंगा। दुनिया को भी तर्क कर दूंगा, लेकिन तुझे नहीं छोड़ सकता।

सिमा के बारे में आसारे पाक और अक़वाले सहीहिया ये हैं कि सिमा नफ्सुल अम्र में मुबाह है। सिमा की तारीफ ये है कि

अस्सिमा सूत तय्येबा मौज़ून मफहूमुलमअनी महरकुल कुलूब

सिमा ऐसी पाकीज़ा और मौजून आवाज़ को कहते हैं जिसको समझा जा सके और दिलों को हरकत में लाने वाली हो।

पस इसके अन्दर कोई वजहए हुरमत नहीं है। ‘हराम’ वो चीज़ है जिसका तर्क दलील क़तई से साबित हो चुका हो और जिसके सबूते तर्क में कोई शको शुब्ह न हो और हमने सिमा की जो तारीफ बयान की है उस में कोई ऐसी चीज़ नहीं है। जो लोग दरवेशों की बज्मे सिमा के मुन्किर हैं और महफिले सिमा से इन्कार करते हैं उनके लिए ये रूबाई

दुनिया तलब जहान बकामत बादा

दाइन जेफए मुरदार ब दामत बादा

गुफ्ती के ब नज्द मन हराम अस्त सिमा

गर बर तू हराम अस्त हरामत बादा

ऐ दुनिया के तालिब, दुनिया तुझे मुबारक हो, ये तो मुरदार है, ये मुरदार तेरे दाम ही में रहे। अच्छा है तू कहता है कि सिमा मेरे लिए हराम है।

अगर महफिले समा तुझ पर हराम है तो हराम ही रहे।