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संत कबीर के दोहे Saint Kabir ke Dohe

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार।।

अन्‍त नहीं सद्गुरू की महिमा का, और अन्‍त नहीं उनके किये उपकारों का,
मेरे अनन्‍त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्‍तर मैं अनन्‍त को देख रहा हूं।

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।

हर दिन कितनी बार न्‍यौंछावर करुं अपने आपको सद्गुरू पर,
जिन्‍होने एक पल में ही मुझे मनुष्‍य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं।

गुरू गोविन्‍द दोउ खड़े, काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरू आपणे, जिन गोविन्‍द दिया दिखाय।।

गुरू और गोविन्‍द दोनों ही सामने खड़े हैं, दुविधा में पड़ गया हूं कि किसके पैर पकड़ूं।
सदगुरू पर न्‍यौछावर होता हूं कि जिसने गोविन्‍द को सामने खड़ाकर दिया, गोविन्‍द से मिला दिया।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिा
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्‍या माहि।।

जब तक ‘मैं’ था, तब तक ‘वो’ नहीं थे, अब जब ‘वो’ हैं तो ‘मैं’ नहीं रहा।
अंधेरा और उजाला, एक साथ कैसे रह सकता,
फिर वो रौशनी तो मेरे अन्‍दर ही थी।

No Comments

  • Sarfaraj says:

    Parhit saris dharam nahi bhai
    Par peedha sam nahi adhamai

    दूसरो के हित के लिए कार्य करना सबसे बडा धर्म है,
    एवं दूसरो को हानि पहॅंचाना सबसे बडा पॅाप है

    Help to others is supreme religion.
    And harm to others is greatest sin.
    Ram Charit Manas…

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