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डिसिप्लिन मतलब वक्त क़ी पाबंदी, अनुशासन। अपने मक़सद में लगन लगाए रखना। एक चीज़ को दूसरी बड़ी चीज के लिए छोड़ देना। बाद की ज्यादा बड़ी खुशी के लिए आज की छोटी खुशी को कुरबान कर देना।

ज़ाहिरी तौर पर इसमें मजबूरी दिखाई देती है कि करना ही पड़ेगा। बिना किये काम नहीं चलेगा। लेकिन असल आज़ादी इसी में होती है। जैसे लिखना पढ़ना हमारी एक खूबी है, इसके बगैर जिंदगी को हम सोच भी नहीं सकते। लेकिन अगर बचपन में अनुशासित होकर इसे नहीं सीखते तो क्या लिख पढ़ पाते। इसी लिखने पढ़ने की आज़ादी के लिए ही हमने घूमना फिरना खेलना कूदना छोड़ दिया था।

जो डिसिप्लिन में नहीं रहते वो दरअसल आज़ादी को नहीं जानते। वो छोटी छोटी खुशियों में ही खोए रहते हैं, बड़ी खुशियां तो उन्हें मालूम ही नहीं। वो खुशी के बारे में उसी तरह जानते हैं जिस तरह अंधा रंगों के बारे में जानता है।

कारण तो हमेशा रहते हैं, बहाना कभी नहीं रहता। फिर भी वो अक्सर बहाने बनाने में अपना वक्त जाया करते रहते हैं। ऐसे लोग अक्सर नाकामयाब होते हैं। ऐसे लोग जिन कामों को बहाना बना कर छोड़ देते हैं अक्सर कामयाब लोग उसी काम को करके कामयाब होते हैं। चाहे पसंद हो या नापसंद हो।

सबसे पहले अपने मक़सद को पहचाने फिर उसे हासिल करने में लग जाएं। परेशानी आ सकती है लेकिन नाउम्मीद न हो। इसे इस तरह पकड़े रहें कि इसके लिए बाक़ी सब छोड़ दें। चाहे आपकी पसंद का हो या न हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि कामयाबी हर किसी को पसंद होती है और डिसिप्लिन में ही कामयाबी छुपी हुई है।

शैख सादी रज़ी. फ़रमाते हैं-

‘धीरे धीरे ही सही, लेकिन डिसिप्लिन व लगन से लगातार चलने वाले की कामयाबी तय है।’

लगातार गिरता पानी, पत्थर को भी चीर देता है।

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