दुनिया की ज़िन्दगी तो बस खेल तमाशा है…
आदमी एक बच्चे की तरह है, जो दुनिया के मेले में खो गया है। मेले में बहुत अच्छी अच्छी चीजें हैं, खेल है, खिलौने हैं, झूले हैं, नौटंकी हैं, यहां तक कि मौज मस्ती के सारे सामान मौजूद हैं। मेले की चकाचौंध में बच्चा भूल ही गया है कि उसका घर भी है, घरवाला भी है और उसे लौटना भी है। ये मेला हमेशा के लिए नहीं है, ये तो आज है कल नहीं रहेगा। लेकिन घर तो हमेशा रहेगा। मेले में उसका कोई नहीं है, लेकिन घर पर उसका कोई है, जो उसकी राह देख रहा है। उसके लौटने का इंतेज़ार कर रहा है।
बच्चे को पैदा करनेवाला बड़ी चिंता में है। कहीं कुछ उंच नीच न हो जाए। कोई तकलीफ़ न हो जाए। उसने अपना ‘पैग़ाम’ देकर भेजा, लेकिन बच्चा नहीं आया। उसने ‘इनाम’ देकर भेजा, लेकिन बच्चा नहीं आया। बच्चे का दिल वहीं रम गया। उसे कोई फि़क्र नहीं, अपने पालनहार की।
गुमने और न गुमने में राब्ते (संपर्क) का ही फ़र्क़ है। अगर घरवाले से राब्ता है तो नहीं गुमा है और राब्ता नहीं है तो गुम गया। तो यहां उस पालनहार से सिर्फ राब्ता रखना है, उसे हमेशा याद रखना है। वो ये नहीं चाहता कि बच्चा सब छोड़कर घर ही आ जाए, लेकिन वो ये भी नहीं चाहता कि बच्चा मेले में ही गुम हो जाए। वो तो ये चाहता है कि मेले में रहे, जो अच्छा है वो करे और फिर घर लौट आए।
जो दुनिया का इनाम चाहे तो वो (भी) रब के ही पास है,
उसी के पास दुनिया व आखिरत (दोनों) का ईनाम है।
उस पालनहार ने ‘पैग़ाम’ वालों को भेजना बंद कर दिया है, कोई नया ‘पैग़ाम’ अब नहीं आएगा। लेकिन ‘इनाम’ व ‘एहसान’ वालों को अभी भी भेज रहा है। अब बच्चे को चाहिए कि उनका दामन थाम ले, उनसे राब्ता कायम कर ले। इसी में यहां भी भलाई है और वहां भी। आखि़र इन ‘दौलतमंदों’ का साथ जो होगा।
और जो कोई ख़ुदा व उसके रसूल का हुक्म मानता है,
उसे उनका साथ मिलेगा, जिन पर रब ने (खास) इनाम अता किया है,
यानी अंबिया व सिद्दीक़ व शहीद व नेक लोग,
ये बहुत बेहतरीन साथी हैं।