कोई सलीका है न आरजू का,

न बंदगी मेरी बंदगी है।

ये सब तुम्हारा करम है आक़ा,

कि बात अब तक बनी हुई है।

 

तजल्लीयों की कफ़ील तुम हो,

मुरादे क़ल्बे ख़लील तुम हो।

ख़ुदा की रौशन दलील तुम हो,

ये सब तुम्हारी ही रौशनी है।

 

अता किया मुझको दर्द ए उल्फ़त,

कहां थी ये मुझ पुख़र्ता की कि़स्मत।

मै इस करम के कहां था काबिल,

हुजूर की बंदापरवरी है।

 

उन्हीं के दर से ख़ुदा मिला है,

उन्हीं से उसका मता मिला है।

वो आईना, जो ख़ुदा नुमा है,

जमाले हुस्ने हुजूर ही है।

 

अमल की मेरे असास क्या है,

बजुज़ निदामत के पास क्या है।

रहे सलामत तुम्हारी निसबत,

मेरा तो एक आसरा यही है।

 

किसी का एहसान क्यों उठाएं,

किसी को हालात क्यों बताएं।

तुम्हीं से मांगेंगे, तुम ही दोगे,

तुम्हारे दर से ही लौ लगी है।

 

तम्ही हो रूहे रवाने हस्ती,

सुकूं नज़र का, दिलों की मस्ती।

है दोजहां की बहार तुमसे,

तुम्हीं से फूलों में ताज़गी है।

 

(हज़रत ख़ालिद महमूद ‘ख़ालिद’)