मसनवी मौलाना रूमी, सूफ़ीयाना हिकायात, अख़्लाकी तालीमात और आरिफ़ाना मकाशिफ़ात का वो नमूना है, जिसकी मिसाल नहीं मिलती।

मौलाना जामी फ़रमाते हैं- 
मसनवी मानवी मौलवी। 
हस्त कुरआं दर ज़ुबाने पहलवी।
यानी मौलाना रूमीؓ की मसनवी मानवी हक़ीक़त में फ़ारसी ज़ुबान की कुरआन है।

फि़क़्ह शरीअ़त मुकद्दसा के लिए, जिस तरह इमाम अबूहनीफ़ाؓ व इमाम शाफ़ईؓ पैदा किए गए हैं, उसी तरह फि़क़्हे तरीक़े इश्क़ के लिए हक़ तआला ने मौलाना रूमीؓ को पैदा फ़रमाया।

मौलवी हरिग़ज़ नशुद मौलाए रूम
ता ग़ुलामी शम्स तबरेज़ी नशुद
(मौलाना रूमीؓ, मौलाना नहीं बन पाता अगर हज़रत शम्स तबरेज़ؓ का ग़ुलाम नहीं होता।)
- मौलाना जलालुद्दीन रूमीؓ


मर्द मोही ईं सयह पोशीदा बहर मातमश
हर कुजा वरक़े बूद अवराक़ दीवान मनस्त
मोहीउद्दीन मर चुका है, वो ज़िन्दा नहीं है, उस पर मातम करते रहो और इसी लिए वो काले कपड़े भी पहने हुए है। और जहां भी कुछ (ऐसी बात) लिखी हुई है, वो मेरे ही (ज़िन्दगी की) किताब का कोई पन्ना है।

(हज़रत मोहीउद्दीन अब्दुल क़ादिर जिलानीؓ अक्सर काले कपड़े पहना करते। लोग पूछते तो अपने ख़ास अंदाज़ में फ़रमाते. मोहीउद्दीन ज़िन्दा नहीं है, वो तो मर चुका है। और उसने अपने ही मौत का मातम करने काला कपड़ा पहन रखा है।)

मारफ़त

मारफ़त की वुसअतों की कोई हद नहीं और निहायत नहीं,

राह ही राह है, दीवान और ऐवान नहीं। चलने वालों की क़तारें हैं

या थक कर बैठ जाने वालों के पड़ाव। न सद्र न सद्रनशीन।

रास्ता ही मुसाफ़त और वही मंज़िल, राही सद्र और बाला नशीन…

बे निहायत हज़रतस्त ईं बारगाह।

सद्र रा बगुज़ार, सद्र तुस्त राह।।

तजल्लीयों और अनवार की कोई इन्तेहा नहीं, लम्हा ब लम्हा नौ ब नौ,

एक एक बाला तर, खूबतर और अजीबतर…

चूं गुज़श्ती ज़ां दिगर नौ तर रसद

आं यके बालातर अज़वे दर रसद

सुलूक की ग़ायत वसूल है लेकिन वसूल के बाद सैर ही सैर है,

जिसका कोई आख़िर नहीं। न सर न पांव। वुसअत ही वुसअत।

एक को दूसरे की ख़बर नहीं। न किसी की खुशी की वजह मालूम

न किसी की हैरानी के सबब का पता। सब एक दूसरे से बे तअल्लूक…

हर यके अज़ हाले दीगर बे ख़बर

मुल्क बा पहना व बे पायान व सर

ईं दरां हैरां के आवाज़ चीस्त खुश

वां दरां खैरा के हैरत चीस्तश

न रास्तों की कोई हद और न सीढ़ियों का कोई शुमार।

सबका रूख बाला की तरफ़…

नर्द बा निहाईस्त पिन्हां दर जहां

पाया पाया ता अनाने आसमां

हर जमात का ज़ौक़ अलग और उसका रूख अलग।

जैसा ज़ौक़ वैसा सीढ़ी और उसी की तरफ़ उसकी सैर…

चश्मे हर क़ौमे बसुवे मान्दा अस्त

कान तरफ़ यक रोज़ा ज़ौक़े रांदा अस्त

हर सैर की मंज़िल जुदा, हर उरूज की मेराज दूसरी…

हर गिरह रा नर्दबाने दीगरस्त

हर रविश रा आसमाने दीगरस्त

ईरफ़ान के इस नापैदा किनारा और बेथाह समंदर में सय्याही की हद, तैराक की अपनी ताक़त पर निर्भर है और ये ताक़त महदूद है। इस हद से ज़्यादा की तमन्ना फि़जूल है। पहाड़ को अपनी जगह से हटा देना, किसी तिनके के बस की बात नहीं…

आज़रू मयख़्वाह लयक अन्दाज़ा ख़्वाह

बर नताबद कोह रा यक बर्ग काह