जीवन दर्शन

मनुष्य के प्रकार

परमहंस जी अपने शिष्यों के साथ टहल रहे थे। देखा कि एक मछुआरा जाल फेंककर मछली पकड़ रहा है। आप वहां ठहर गए और अपने शिष्यों से कहा कि ध्यान से इन मछलियों को देखो। कुछ मछलियां जाल में निश्चल पड़ी हैं, तो कुछ जाल से निकलने की कोशिश कर रही हैं लेकिन कामयाब नहीं हो पा रही हैं। कुछ उस जाल से निकलने में कामयाब हो गई और आज़ादी से घुमने लगी। लेकिन कुछ मछलियां तो जाल में फंसी ही नहीं।
जिस तरह मछलियां चार किस्म की होती है, ठीक उसी तरह मनुष्य भी चार तरह के होते हैं। एक मनुष्य वो जो अपनी इंद्रियों के जाल में फंस चुका है और हार मान चुका है। वो इससे निकलने की कोशिश भी नहीं करता। दूसरा मनुष्य वो जो इंद्रियों के जाल में फंसा तो है लेकिन उससे निकलने की कोशिश कर रहा। ये अलग बात है कि कामयाब नहीं हो पा रहा। तीसरा मनुष्य वो है, जो इंद्रियों के जाल में फंसा भी और उससे निकल भी गया। अब आज़ादी से अपने अस्ल की तरफ लौट आया है। चौथा मनुष्य वो है जो अपना अस्ल जानता है। वो ये भी जानता है कि इन इंद्रियों का जाल कितना भयावह है और इससे कैसे बचा जाए। वो इस जाल में फंसता ही नहीं और खुद को इससे हमेशा आज़ाद रखता है। इस तरह वो रब को पाने में अग्रसर है।

गुरू की ज़रूरत

एक संत से मिलने अक्सर देव आया करते थे। संत बड़े आदर से उनका इस्तेकबाल करते, उनके साथ बैठते, बातचीत करते। लेकिन जब देव चले जाते तो उनकी बैठी हुई मिट्टी को उठाकर दूर फिकवा देते थे।
ये बात जब देव को पता चली तो वो बहुत गुस्सा हुए और संत के पास पहुंचकर सवाल किया- ‘ऐ संत! मैं कौन हूं, ये आप जानते हैं, मैं किनका पुत्र हूं, ये भी आप जानते हैं, मेरा ज्ञान और महिमा किसी से छुपी नहीं है। फिर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यूं किया जा रहा है? पहले इतने अच्छे से मिला जा रहा है फिर मेरा इतना अपमान। ऐसा तो कोई दुश्मनों के साथ भी नहीं करता।’
संत ने कहा ‘हे देव! आपसे अच्छे से मिलना तो मेरा व्यवहार है और आपके ज्ञान व शान में मुझे कोई शक नहीं है। लेकिन आपमें एक कमी भी है, वो ये कि आप किसी गुरू से नहीं जुड़े हैं। इसलिए मेरे लिए आपका ज्ञान व शान किसी काम की नहीं। बिना गुरू के वो छुत समान है। मैं नहीं चाहता कि जो गुरू से जुड़ा न हो उसका साया भी यहां की मिट्टी पर पड़े।’

ईश्वर कहां है?

संत नामदेव से एक जिज्ञासु प्रश्न किया-‘गुरूदेव, कहा जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, तो उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है? क्या आप उसकी प्राप्ति का कोई उपाय बता सकते हैं?’ नामदेव यह सुनकर मुस्कराए। फिर उन्होंने उसे एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने को कहा। वहां उपस्थित शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गई।
नमक और पानी के आ जाने पर संत ने नमक को पानी में छोड़ देने को कहा। जब नमक पानी में घुल गया तो संत ने पूछा- ‘बताओ, क्या तुम्हें इसमें नमक दिख रहा है?’ जिज्ञासु बोला- ‘नहीं गुरूदेव, नमक तो इसमें पूरी तरह घुल-मिल गया है।’ संत ने पानी चखने को कहा। उसने चखकर कहा- ‘जी, इसमें नमक उपस्थित है, पर वह दिखाई नहीं दे रहा।’ अब संत ने उसे जल उबालने को कहा। पूरा जल जब भाप बन गया तो संत ने पूछा- ‘क्या इसमें वह दिखता है?’ जिज्ञासु ने गौर से लोटे को देखा और कहा-‘हां, अब इसमें नमक दिख रहा है।’ तब संत ने समझाया-‘जिस तरह नमक पानी में होते हुए भी दिखता नहीं, उसी तरह ईश्वर भी हर जगह अनुभव किया जा सकता है, मगर वह दिखता नहीं। जिस तरह जल को गर्म करके तुमने नमक पा लिया, उसी प्रकार तुम भी उचित तप और कर्म करके ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो।’