यहां हम सूफ़ी मख़्दूम यहया मुनीरीؓ के उन तालीमात का ज़िक्र करेंगे, जो आपने अपने खास मुरीद क़ाज़ी शम्सुद्दीनؓ को ख़त की शक्ल में अता की। दरअस्ल क़ाज़ी साहब आपकी खि़दमत में हाज़िर नहीं हो सकते थे, इसलिए आपसे इस तरह से (यानी ख़तो किताबत के ज़रिए) तालिम की दरख़्वास्त की थी। ये भी बुजूर्गों का एक हिकमत भरा अंदाज़ ही है कि क़ाज़ी साहब के साथ.साथ हम लोगों को भी तालीम हासिल हो रही है। शुक्र है उन सूफ़ीयों, आलिमों और जांनिसारों का जिनके ज़रिए ये सूफ़ीयाना बातें हम तक पहुंच रही है और दुआ है कि ताक़यामत इससे लोग फ़ैज़याब होते रहें।

 

ऐ मेरे प्यारे शम्सुद्दीन! अल्लाह तुम्हें दोनों जहान की इज़्ज़त दे। मालूम होना चाहिए कि बुजूर्गों के नज़दीक शरीअ़त-तरीक़त-हक़ीक़त-मारफे़त की तरह तौहीद के भी चार दर्जे हैं और हर दर्जे में अलग अलग हालत व असरात हैं।

पहला दर्जा

इसमें वो लोग आते हैं जो जुबान से तो ‘लाईलाहा इल्लल्लाह’ (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं) का इक़रार करते हैं, लेकिन दिल से हुजूरﷺ  की रिसालत और तौहीद (एक ईश्वर) को नहीं मानते। ऐसे लोगों को मुनाफि़क़ कहा गया और ऐसों से बचने सख्त हिदायत है।

दूसरा दर्जा

इसकी दो शाखें हैं, एक गिरोह वो जो ज़बान से भी तौहीद का इक़रार करता है और दिल से भी तक़लीदन (नकलची की तरह) यक़ीन रखता है कि ‘अल्लाह एक है और उसका कोई शरीक नहीं’। जैसा कि बाप दादाओं से सुना है, वैसा ही मानने लगते हैं। इस गिरोह में आम मुसलमान आते हैं। दूसरा गिरोह वो है जो ज़बान से भी तौहीद का इक़रार करता है और दिल से भी सच्चा यक़ीन रखता है। सिर्फ अपने बड़ों से सुनने की वजह से तौहीद पर यक़ीन नहीं रखता बल्कि ईल्म और सैकड़ों दलीलों के साथ पुख्ता यक़ीन रखता है। ये लोग उलमा.ए.ज़वाहिर (ज़ाहिरी बातों को अहमियत देने वाले ज्ञानी) या मुतकल्लेमीन (अक़ली दलील के माहिर) कहलाते हैं।

आम मुसलमान व उलमा ए ज़वाहिर की तौहीद, शिर्के जली से बचने के लिए होती है। इसमें आखिरत की भलाई, दोजख से रिहाई और जन्नत के लालच भी होता है। अलबत्ता इस तौहीद में मुशाहिदा नहीं होता। यानी इसमें नूरे इलाही हासिल नहीं होती। इसलिए अरबाबे तरीक़त के नज़दीक इस तौहीद से तरक्की न करना, बहुत छोटे दर्जे पर क़नाअत करना है। इसे बुढ़ी औरत के दीन अख्तियार करना कहा गया है।

तीसरा दर्जा

इस दर्जे में मुवह्हेदे मोमिन आते हैं, जो अपने पीरे तरीक़त की इत्तेबा करते हुए मुजाहिदा व रियाज़त में मशगूल रहते हैं। इनके दिल में रफ्ता रफ्ता तरक्क़ी करते हुए नूरे बसीरत पैदा हो जाती है और इस नूर से उसको इसका मुशाहिदा होता है कि फाएल हक़ीक़ी वही एक ज़ात है। सारा आलम गोया कठपुतली की तरह है। किसी को कोई इख्तियार नहीं है। तौहीद का ऐसा यक़ीन किसी फेल की निसबत से दूसरे की तरफ नहीं किया जा सकता। ये ख़ुद की तलब और खुदा की इनायत से ही हासिल हो सकता है।

यहां एक मिसाल लेते हैं जिससे तौहीद आमियाना, तौहीद मुतकल्लेमाना और तौहीद आरिफाना में फ़र्क़ समझ आ जाएगा। किसी शहर में एक सौदागर सामान बेचने पहुंचा, उसकी शोहरत हुई, लोग उसके माल असबाब देखने पहुंचे। किसी ने ज़ैद से पूछा. क्या तुम्हें मालूम है कि शहर में एक सौदागर आया है। हां सहीं खबर है क्योंकि मुझे एक भरोसेमंद इन्सान ने बताया है। ये तौहीद आमियाना की मिसाल है। इसी तरह किसी ने उमर से उस सौदागर के बारे में पूछा तो उमर ने फ़रमाया कि हां, मैं अभी अभी उसी तरफ से होकर आया हूं, सौदागर से मुलाकात तो नहीं हुई लेकिन उसके माल व सामान, नौकरों और उसकी घोड़ी भी देखा। यहां किसी तरह का शक या शुबा नहीं है। ये तौहीद मुतकल्लेमाना की मिसाल है। इसी तरह किसी ने खालिद से सौदागर के बारे पूछा तो उसने कहा . बेशक, मैं तो अभी अभी उन्हीं के पास से आ रहा हूं। मेरी उनसे अच्छी तरह मुलाकात हुई। ये तौहीद आरिफाना है।

यहां गौर करने वाली बात है कि ज़ैद ने सुनी सुनाई बात पर यकीन किया, उमर ने मालो असबाब यानि दलीलों से यकीन किया और खालिद ने देखकर यकीन किया। ये तीनों बातें उपर दर्ज तौहीद के तीन दर्जे को बयान करती है। सूफियों के नज़दीक, जिस तौहीद में मुशाहिदा न हो, वो सिर्फ ढांचे की तरह है। उसमें जान नहीं है। इसमें ख्याली असरात हैं। जब तक नूरे इलाही का दीदार न हो, उसका पूरा यक़ीन कैसे हो सकता है।

हमारे हुजूरﷺ  को अल्लाह ने अपना दीदार कराया। हमारी तौहीद दलीलों पर बेस्ड नहीं है, हम तो देखे हुए पर ईमान लाते हैं।

चौथा दरजा

तौहीद का चौथा दरजा, वो दरजा है जहां तक बहुत बहुत ज़िक्र, इबादत, रियाज़त व मुजाहिदे के बाद तरक़्क़ी करते हुए पहुंचा जाता है। यहां कभी हर सिम्त अल्लाह के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। तजल्लियाते सिफाती का ज़हूर इस शिद्दत से दिल पर उतर जाता है कि बाकी सारी हस्तियां उसकी नज़र से गुम हो जाती है। जिस तरह सूरज की तेज़ रौशनी के आगे ज़र्रा नज़र नहीं आता। धूप में जो ज़र्रा नज़र नहीं आता, ऐसा नहीं कि वो खत्म हो जाता है, बल्कि वो ज़र्रा भी सूरज की रौशनी से चमकदार हो जाता है। खिड़की से आती धूप में ज़र्रे नाचते झूमते दिखते हैं, लेकिन जब बाहर आकर देखो तो धूप के सामने कोई ज़र्रा नज़र नहीं आता। इसी तरह बंदा खुदा नहीं होता और ना ही बंदा खत्म होता है। नहीं होना अलग चीज़ है और नहीं दिखना अलग चीज़। जब उसका नूर नहीं होता सब दिखता है और जब उसके नूर से मुशाहिदा होता है तो कोई नज़र नहीं आता। इसे नूर का जलवा कहें या फिर नज़र की कूवत। जो भी हो, होता वही है और होना वही है। सूफि़यों के नज़दीक इस मुकाम को ‘फ़ना.फि़त.तौहीद’ कहा जाता है। इस दर्जे में किसी पर हफ्ते में फनाहियत तारी होती है तो किसी पर हर रोज़ तो कोई हर वक़्त इसी हालत में होता है।

इस मुकाम पर अगर झूठ, फरेब, दिखावा या शैतानियत सवार हो तो ये बंदे की ही कमी मानी जाएगी। इसमें कोई शक नहीं कि खुदा की तजल्ली होती है और वो अपना जलवा दिखाता है। लेकिन इस मुकाम पर पहुंचना और वहां कायम रहना, बगैर खुदा की मरज़ी और पीर की मदद के मुमकीन नहीं है। पीर वो है जो ख़ुद उस मुकाम पर फ़ाएज़ हो, साहबे बसीरत हो और मुरीद के बहकने या गिरने पर, सम्भालने की ताक़त रखता हो।

‘फ़ना-फि़त-तौहीद’ से उपर भी एक मुकाम होता है जिसे ‘अल-फ़नाओ-अनिल-फ़ना’ कहते हैं। इस फ़नाहियत में ख़ुद के होने का एहसास भी नहीं होता। यहां तक कि फ़ना होने की खबर भी नहीं होती। एक जुम्बीश में सब बातें गायब हो जाती है। किसी किस्म का इल्म बाकी नहीं रह जाता। ‘मक़ामे ऐनुल जमा’ इसी में हासिल होता है।

तू दर्द गुम शो के तौहीद ईं बूद

गुमशुदन गुम कुन के तफ़रीद ऐन बूद

(तू इस में खो जा यहीं तौहीद है और इस खो जाने को भूल जा, इसका नाम तफ़रीद है।)

इस मुकाम में पहुंच कर हक़ीक़त रब इस तरह जल्वानुमा होती है बाकी सब नज़रों से ओझल हो जाते हैं। नामो नसब, दुनिया व दौलत, शोहरत व इज़्ज़त, ज़मीन व आसमान, दोस्त व खानदान का कुछ पता नहीं होता।

‘यहां हर चीज़ को फ़ना है (सिवा उस ज़ात के)’

(कुरान 55:26)

ऐ शम्सुद्दीन! इसी बात पर ग़ौर फि़क्र करने की ज़रूरत है। अच्छी तरह से इसको देखो और समझो। क्योंकि यही तमाम मक़ामात, अहवाल, मामलात व मकाशफेात सभी चीज़ों की जड़ है। यही पैमाना है, तुम्हारे लिए भी और दूसरों के लिए भी। जब तुम किसी उलमा व मशाएख को देखो या सुनो या पढ़ो तो यही पैमाना उनका मकाम तय करेगा, तुम्हें गलतफहमी नहीं होगी। वस्सलाम।