ग़ौसुल आज़म मोहीउद्दीन अब्दुल का़दिर जिलानीؓ फ़रमाते हैं-

मारफ़त ये है कि मकनुनात के पर्दों में जो मख़्फ़ी मआनी हैं और तमाम अशया में वहदानियत के मआनी पर और हर शय में इशारा के साथ हक़ के शवाहिद पर इत्तेला हो। हर एक फ़ानी के फ़ना में हक़ीक़त के इल्म का तदराक ऐसे वक़्त में हासिल हो कि बाक़ी का उस की तरफ़ इशारा हो, इस तौर पर कि तबूबियत की हैबत की चमक हो। बक़ा के असर की तासीर इसमें हो कि जिस तरफ़ बाक़ी का इशारा हो। इस तरह कि जलाल-उल-वहीत की चमक हो और उसके साथ ये भी हो कि दिल की आंख से ख़ुदा की तरफ़ नज़र हो।

(बेहिजातुल असरार)

 

ख्वाजा ग़रीबनवाज़ मोईनुद्दीन अजमेरीؓ फ़रमाते हैं-

जो लोग शरीअ़त में साबित क़दम रहते हैं। इसके तमाम अहकाम बगैर किसी कमी के अदा करते हैं, तो अक्सर वो दूसरे मरतबे पर पहुंचते हैं, जिसे तरीक़त कहते हैं। जब तरीक़त पर साबित क़दम होते हैं, बिना किसी कमी के सारे अहकाम व शर्तों को अदा करते हैं, तो वो मारफ़त के मुक़ाम पर पहुंचते हैं। जहां शनासाई व शिनाख्त का मुक़ाम आ जाता है, इसमें साबित क़दम रहने से हक़ीक़त के मरतबे पर पहुंचते हैं।

(मल्फूज़ाते ग़रीबनवाज़)

हज़रत सैय्यद ज़व्वार नक़्शबंदीؓ फ़रमाते हैं-

आम लोगों में ये मशहूर हो गया है कि सिर्फ ज़ाहिरी (दिखनेवाले) आमाल व इबादत को शरीअ़त कहते हैं और ये बातिनी (न दिखनेवाले) आमाल व इबादत पर ध्यान नहीं देते। ऐसे लोग सरासर जिहालत व ग़लती पर हैं। इसी तरह एक गिरोह बातिनी आमाल को ज़रूरी समझकर, ज़ाहिरी आमाल व इबादत को छोड़ देता है। ऐसे लोग भी गुमराही में हैं।

हुज़ूरﷺ के हुक्म को मानना ही शरीअ़त है, चाहे वो कुरान की शक्ल में हो या हदीस की शक्ल में। इसके ज़ाहिरी अहकाम को फि़क़्ह कहा जाता है (आमतौर पर इसे ही शरीअ़त कहते हैं)। और बातिनी अहकाम को तसव्वुफ़ कहा जाता है। और तसव्वुफ़ के तरीक़ों को तरीक़त कहा जाता है। शरीअ़त के बगैर, तरीक़त और तरीक़त के बगैर, शरीअ़त बेकार है।

इमामे आज़म अबू हनीफ़ाؓ फ़रमाते हैं-

नफ़्स का अपने हुकूक़ व फ़ज़्र को जानना ही शरीअ़त है।

अब्दुल हक़ मोहद्दिस देहलवीؓ फ़रमाते हैं-

जो शरीअ़त व तरीक़त में फ़र्क़ करे, वो सूफ़ी नहीं।

हज़रत अबू उस्मान हयरीؓ फ़रमाते हैं

ज़ाहिर में हुज़ूरﷺ के खि़लाफ़ करना, बातिन में रियाकारी की अलामत है।

शैख बायज़ीद बुस्तामीؓ फ़रमाते हैं-

अगर तुम किसी को करामत करते देखो, यहां तक कि हवा में उड़ता हो, तब भी धोखा न खाना। वो जो कोई भी हो, अगर हुज़ूरﷺ के हुक्म के मुताबिक नहीं है, तो किसी काम का नहीं।

इमाम कुशैरीؓ फ़रमाते हैं-

वो बातिन, जो ज़ाहिर के खिलाफ़ हो, दरअस्ल बातिल है।

हज़रत यहया मुनीरीؓ फ़रमाते हैं-

जिन दीनी मामलात का ताल्लुक़ ज़ाहिर से है, उसे शरीअ़त कहते हैं और जिनका ताल्लुक़ रूह से है, उसे तरीक़त कहते हैं।

हज़रत हाजी इमदादुल्लाह महाजर मक्कीؓ ने ‘शरह मसनवी’ में एक हदीस नक़ल की है-

‘हुज़ूरﷺ फ़रमाते हैं कि शरीअ़त मेरे क़ौल का नाम है, तरीक़त मेरे आमाल का नाम है, हक़ीक़त मेरे अहवाल का नाम है और मारफ़त मेरा राज़ है’।

(रूहानियते इस्लाम, असरारे मारफ़त)

इमाम मालिकؓ फ़रमाते हैं-

‘जिसने तसव्वुफ़ पर अमल किया, फि़क़ह न सीखी वो गुमराह है। जिसने फि़क़ह सीखी लेकिन तसव्वुफ़ न सीखा, वो फिस्क़ व फ़जूर में मुब्तेला है। जिसने दोनों को हासिल किया, वो हक़ीक़त को पहुंचा’।

(शरह ऐनुल उलूम:33)

ख़्वाजा सफै़ुद्दीन चिश्तीؓ फ़रमाते हैं-

तरीक़त, शरीअ़त की जान है, यही इस्लाम की रूह है और यही ताकत भी है। रूहानियत के बगैर इस्लाम एक खाली ढांचा और मुर्दा जिस्म की तरह है। आज हमारी ज़वाल व बर्बादी की असल वजह ये है कि ज़ाहिरी इल्म तो बहुत है लेकिन रूहानी इल्म से खाली हैं। जिस मज़हब से उसकी रूहानियत निकाल ली जाए, वो अंधेरे, गुमराही और खात्मे के दलदल में धंसता चला जाता है।

इन्सान की असल उसकी रूह है, बगैर रूह के इन्सान मिट्टी है। जिस तरह ज़िन्दा रहने के लिए हमें खाने की ज़रुरत होती है, उसी तरह रूह की गि़ज़ा रूहानियत है। क्योंकि रूहानियत से ही उस हक़ की मारफ़त नसीब होती है।