यहां हम सूफ़ी जलालुद्दीन खि़ज़्र रूमीؓ की तालीमात से फ़ैज़ हासिल करेंगे। आप ज़िक्र की बहुत तालीम फ़रमाते हैं। इसका पहला हिस्सा हम पढ़ चुके हैं, पेश है इसका दुसरा हिस्सा...
इक़रा कुल्बा बिस्मिल्लाह
सल्लल्लाहो वलहम्दोलिल्लाह
हसबी रब्बी जल्लल्लाह
मा फ़ी क़ल्बी ग़ैरुल्लाह
नूर मुहम्मद सल्लल्लाह
ला इलाहा इल्लल्लाह
मुहम्मदुर्रसुलल्लाह
सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम
दस्त ब कार, दिल ब यार।
हाथ को काम में लगाए रखो और दिल को यार में लगाए रखो।
अलीफ़ अल्लाह चन्बे दी बूटी मुर्शिद मन मेरे विच लाई हू
नफ़ी असबात दा पानी मिलया हर रगें हरजाई हू
अन्दर बूटी मशक मचाया जान फलन पराई हू
जेवे मुर्शिद कामिल बाहू जैं इहया बूटी लाई हू
सुल्तान बाहूؓ
हज़रत अबूदरदाؓ से मरवी है कि हज़रत मुहम्मदﷺ ने फ़रमाया कि ‘‘अल्लाह के नज़दीक सबसे बेहतरीन अमल ज़िक्र है। ज़िक्र सबसे ज्यादा पाकीज़ा और रूहानी दरजात को बुलन्द करने वाला है। ये सोना चांदी ख़ैरात करने से और जिहाद करने से भी अफ़ज़ल अमल है।’’
(तिरमिजी:3377, इब्नेमाजा:379)
‘ऐ ईमानवालो! अल्लाह का ज़िक्र बहुत बहुत किया करो।’
(कुरान 41:33)
‘उस (अल्लाह) का ज़िक्र किया करो, जैसे (तरीक़े) उसने तुम्हें हिदायत फ़रमाई है।’
(कुरान 2:198)
ज़िक्र की बरकतों और अज़मतों की कोई हद नहीं है। जो जितनी यकसूई (ध्यान से) और तड़प से इसे अदा करेगा उसे उतना ही फ़ैज और फ़ायदा हासिल होगा। ज़िक्र, दिल की वो आग है जो ख़ुदा की याद के अलावा बाक़ी सब जला देती है। सिफ़ाते बशरीया का पहाड़ इसी ‘लाईलाहा इल्लल्लाह’ के ‘ला’ से तोड़ा जा सकता है और यही ‘ला’ ही सारे माबूदाने बातिल की नफ़ी करता है।
ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़ؓ फ़रमाते हैं- जो भी ज़िक्र अज़कार, सूफ़ीयों की बारगाह में अदा किए जाते हैं, वो सब हज़रत मुहम्मदﷺ से सीना ब सीना पहुंचे हैं। आपﷺ ने सहाबा को ज़िक्र की तालीम फ़रमाई और करने का तरीक़ा व क़ाएदा बताया। बिल्कुल वही क़ायदा व तरीक़ा, खुलफाए राशिदीन से सहाबी, फिर उनसे ताबेईन, उनसे सिलसिले के बुजूर्गों से होता हुआ, सीना ब सीना हम तक पहुंचा है।
हुज़ूरﷺ ने फ़रमाया- ऐ अलीؓ! आओ हम तुम्हें वो राह बताएं, जिससे तुम अल्लाह को देख सकोगे। फिर फ़रमाया- कहो ‘लाइलाहा इल्लल्लाह’। तो हज़रत अलीؓ ने फ़रमाया- या रसुलल्लाह! इसे तो हम हमेशा पढ़ते हैं। तो आपने फ़रमाया- जैसा मैं कहता हूं और जैसा करता हूं, वैसा करो। और इसी तरह आगे भी किया करो। और लोगों को भी बताया करो।
ख़्वाजा बन्दानवाज़ؓ ने ज़िक्र अज़कार करने के तरीक़े के बारे में, हज़रत अलीؓ, हज़रत सिद्दीक़ؓ, हज़रत बिलालؓ, हज़रत सलमानؓ जैसे सहाबियों से और बड़े बड़े मशायखों से मरवी तकरीबन 54 रिवायतें, अपने रिसाले में दर्ज किए हैं।
ज़िक्र ज़र्ब ख़फ़ी का तरीक़ा
अच्छी तरह पाकसाफ व बावजू होकर, पीर के सामने दोजानू होकर बैठें। अगर पीर साहब हाज़िर न हों तो उनका तसव्वुर कर, उन्हें शामिले हयात समझें। दोजानू इस तरह बैठें कि सीधे पैर का पंजा खड़ा हो और दूसरा लेटा हो, और हाथ जानू पर रखें। पहले दरूद शरीफ़ पढ़ें।
फिर सिर को बाएं घुटने की तरफ़ (दिल की तरफ) झुका लें और ‘ला’ कहते हुए दाहिने घुटने तक ले आएं। फिर ‘इलाहा’ कहते हुए, सिर को दाहिने कंधे से थोड़ा पीछे की तरफ़ ले जाएं। और ये ख़्याल करें कि ‘रब के सिवा दिल में जो कुछ भी है, उसे दूर फेंकता हूं।’ फिर ‘इल्लल्लाह’ कहते हुए सिर को सामने, दिल की तरफ़ ज़ोर से ज़र्ब लगाएं। और ये ख़्याल करें कि ‘सिर्फ उस एक ज़ात को अपने दिल में बसाता हूं।’ इसे ‘चार ज़रबी’ भी कहते हैं, क्योंकि इसमें चार ज़र्ब हैं। 1.बाएं घुटने पर, 2.दाएं घुटने पर, 3.दाएं कंधे पर और 4.दिल पर।
ज़िक्र पास अनफ़ास ख़फ़ी
इसके लिए सांस बाहर छोड़ते वक़्त ‘ला ईलाहा’ दिल में पढ़ते हुए ये तसव्वुर करें कि ‘रब के सिवा दिल में जो कुछ भी है, उसे दूर फेंकता हूं।’ और सांस लेते वक़्त ‘इल्लल्लाह’ ख्याल करते हुए, दिल पर ज़र्ब करें। और ये तसव्वुर करें कि ‘सिर्फ उस एक ज़ात को अपने दिल में बसाता हूं।’ इस ज़िक्र में जुबान से कुछ नहीं कहते और न ही सर या हाथ वगैरह हिलाते हैं। और न ही बहुत ज़ोर ज़ोर से सांस की आवाज़ निकालें। इस ज़िक्र को चलते, फिरते, काम करते हुए भी कर सकते हैं।
यहां ये याद रखें कि ज़िक्र का पूरा तरीका लिखकर नहीं समझाया जा सकता। इसे अपने पीरो मुर्शिद से सीख कर और उनकी इजाज़त से ही, सहीं तौर पर अदा किया जा सकता है।
Jiska koi peer nahi wah kiska tasawur kare please guide zikr ke waqt.