यहां हम ख्वाजा ए चिश्तिया के मल्फूज़ात से फ़ैज़ हासिल करेंगे। मल्फूज़ात, सूफ़ीयों की ज़िंदगी के उस वक्त क़े हालात और तालिमात का ख़जाना होता है। जिसे कोई ऐसे मुरीद ही लिख सकते है, जो ज्यादा से ज्यादा पीर की सोहबत से फ़ैज़याब हुए हो। इस बार हम हज़रत ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रज़ी. के मल्फूज़ात ''अफ़ज़ल उल फ़वाएद'' (यानी ''राहत उल मुहिब्बिन'') में से कुछ हिस्सा नकल कर रहे हैं जिसे उनके मुरीद हज़रत अमीर खुसरो रज़ी. ने लिखा है।
बतारीख़ 24 माह ज़िलहिज्जा 713 हिजरी, इस बन्दए नाचीज़ खुसरो वल्द हुसैन को हज़रत निज़ामुद्दीन महबूबे इलाही रज़ी. की क़दमबोसी का शरफ़ हासिल हुआ। जिस रोज़ मैं उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो मेरे दिल में ये नियत थी कि पहले मैं आपकी बारगाह में बैठ जाउंगा और अगर आप मुझे ख़ुद बुलाएंगे तो ही मैं बैअत होउंगा। मैंने ऐसा ही किया, आस्ताने पर जा कर बैठ गया। थोड़ी ही देर में आपके एक खादिम बशीर मियां ने आकर सलाम किया और फ़रमाया कि हुजूर आपको याद फ़रमा रहे हैं, उन्होंने कहा कि बाहर एक तुर्क बैठा है, जाओ उसे बुला लाओ। मैं फौरन आपकी खि़दमत में हाजिर होकर सर ज़मीन पर रख दिया। आपने कहा सर उठाओ, अच्छे मौके पर आए हो, खुश आए हो। फिर निहायत इनायत व शफ़क़त से मेरे हाल पर दुआ फ़रमाई और मुझे शरफ़े बैअत अता फ़रमाई। ”खास बारानी” और चारतरकीताज इनायत फ़रमाई।
फिर पीर की खि़दमत में मुरीद होने के बारे में गुफ्तगू शुरू हुई। हज़रत निज़ामुद्दीन रज़ी. ने फ़रमाया कि जिस रोज़ मैं बाबा फ़रीद गंजशकर रज़ी. का मुरीद हुआ तो आपने फ़रमाया कि ऐ मौलाना निज़ामुद्दीन! मैं किसी और को विलायत ए हिन्दुस्तान का सज्जादा देना चाहता था लेकिन ग़ैब से आवाज़ आई कि ये नेअमत हमने निजामुद्दीन बदायूंनी के लिए रखी है, ये उसी को मिलेगी।
फिर निहायत रहमत व शफ़क़त मेरे हाल पर फ़रमाई और चारतरकीताज मेरे सर पर रखी और ये हिकायत बयान फ़रमाई – इस ताज के चार खाने होते हैं, पहला शरीअत का, दूसरा तरीक़त का, तीसरा मारेफ़त का और चौथा हक़ीक़त का। पस जो इनमें इस्तेकामत से काम ले उसके सर पर इस ताज का रखना वाजिब है।
आप ये बयान फ़रमा ही रहे थे कि मौलाना शम्सूद्दीन यहया, मौलाना बुरहानुद्दीन ग़रीब और मौलाना फ़खरूद्दीन कदमबोस हुए। हुजूर आगे फ़रमाते हुए कहते हैं कि एक टोपी एकतरकी, दूसरी टोपी दोतरकी, तीसरी टोपी तीनतरकी और चौथी टोपी चारतरकी।
फिर ताज के असल में फ़रमाते हैं कि मैंने अपने पीरो मुर्शिद से सुना है कि ख्वाजा अबुल लैस समरकन्दी रज़ी. की किताब में हज़रत हसन बसरी रज़ी. की रवायत लिखी है कि एक रोज़ पैगम्बरे ख़ुदा हज़रत मुहम्मद ﷺ बैठे थे और आसपास सहाबी बैठे थे कि तभी हज़रत जिबरईल रज़ी. चार ताज लेकर तशरीफ लाए और फ़रमाया कि ख़ुदा का हुक्म है कि ये चार ताज जन्नती हैं, इनको आप अपने सर पर रखें। बाद अजान आप जिसे चाहे इनायत फ़रमाएं और अपना खलिफा बनाएं। हजरत मुहम्मद ﷺ एकतरकीताज अपने सर पर रखे, फिर उतार कर हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ रज़ी. के सर पर रखे, इसी तरह दोतरकीताज हज़रत उमर रज़ी. के सर पर रखे, तीनतरकीताज हज़रत उस्मान ग़नी रज़ी. के सर पर रखे और चारतरकीताज हज़रत मौला अली रज़ी. के सर पर रखे और फ़रमाए कि ये आपका ताज है।
बाद अज़ान फ़रमाते हैं कि तबक़ात के मशाएख और जुनैदिया तबका ने फ़रमाया – हमें इस तरह मालूम हुआ कि चारतरकीताज की असल क्या है। पहले ख़ुदा से हुजूर ﷺ को अता हुआ और उनसे हमको मिला। बिलकुल वैसे ही जैसे ख़रक़ा, मेराज की रात अता हुआ था।
आगे हज़रत निजामुद्दीन रज़ी. फ़रमाते हैं कि एकतरकीताज, जो हज़रत अबुबक्र सिद्दीक़ रज़ी. को पहनाई गई थी, वो अब्दाल व सिद्दीक़ीन के सर पर रखा जाता है। अल्लाह के सिवा किसी का ख्याल दिल में न हो और तमाम दुनिया के कामों से दूर रहें तो फिर वो शख्स इस ताज के काबिल हैं। इस ताज का हक़ उनके बारे में ये है कि इनके बातिन मुसलसल जिक्र की वजह से नूरे मारफ़त से मुनव्वर होते हैं और इन्हें ज़ाहिरी व बातिनी मक़सूद हासिल होते हैं। अगर साहिबे ताज दुनिया का तालिब हो जाए तो वो इस ताज के लायक नहीं रहता।
दोतरकीताज जो हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ी. के सर रखी गयी थी, उसे आबिद, अवताद और कुछ मनसूरी भी पहनते हैं। इसका मकसद ये है कि जब इन्सान इसे सर पर रखे तो दुनिया को तर्क कर दे और ज़िक्र करने वाला बन जाए। सिवाए यादे इलाही के किसी और चीज़ में मशगूल न रहे। यहां तक कि अगर हलाल चीज़ उसे मिल जाए तो शाम तक न बचाए, खर्च कर दे और दुनियादारी के पास भी न भटके। ऐसे शख्स को दोतरकीताज पहनना वाजिब है वरना गुमराह न हो जाए।
तीनतरकीताज, जो हज़रत उस्मान ग़नी रज़ी. के सर रखी गई। वो ज़ाहिद, अहले तहीर, मशाएख तबक़ात और अक्सर अक्लमंद लोग भी पहनते हैं। इससे मक़सूद ये है कि अव्वल गैरूल्लाह से किनारा करे और तमाम लज्ज़तों शहवतों का लालच छोड़ दे। दूसरे, दिल को हसद (जलन), किना, बुग्ज़, फ़हश व रिया (दिखावा) जैसे बूरी आदतों से पाक करे। तीसरे सिर्फ और सिर्फ अल्लाह से रिश्ता जोड़े। जब ये हालत पर पहुंचे तो सर पर इस ताज का रखना जाएज़ है वरना जुनैदी तबक़ा में छोटा ठहरेगा।
चारतरकीताज, जो हज़रत मौला अली रज़ी. के सरे मुबारक पर रखा गया, वो सूफ़ी, सादात और मशाएख बुजूर्ग पहनते हैं। इससे मुराद दौलते सआदत है और जो अठारह हज़ार आलम में है, सबके सब इसमें रखा गया है। लेकिन इसके सर पर रख कर चार चीज़ों को दूर रखें ताकि इस चारतरकीताज को रखना दुरूस्त हो। वो चार चीज़ें हैं- अव्वल, दुनिया व दौलत को तर्क करें। दूसरा, ”तर्क उल लिसान अन नख्मर उल तज़ामा बज़िक्रुल्लाह” यानि अल्लाह की याद के सिवा और कोई बात न रहे। तीसरा ”तर्क उल बसरा मन ग़ैरूल करामा” यानि ग़ैर की तरफ़ नज़र करने से दूर रहे और ग़ैर का न रहे ताकि ग़ैर के लिए अन्धा हो जाए। जब ख्वाजा साहब इस बात पर पहुंचे तो इस क़दर रोए कि सभी हाजिरीन भी रोने लगे, आपने ये शेर इरशाद फ़रमाया-
अगर बग़ैर रख्त दीदा अम बक्स बयन्द
कश्म बरून बान्गश्त चूं सज़ाश ईं अस्त
फिर फ़रमाया चौथा ये कि ”तहारतुल क़ल्ब मिन हुब्बुल दुनिया” यानि दिल को दुनिया की मुहब्बत से पाक कर ले। पस जब दुनियावी मुहब्बत का जंग, दिल से साफ करके अल्लाह को शामिले हयात कर ले तो ग़ैर, दरमियान से उठ जाएगा और अल्लाह से यगाना हो जाएगा। इस वक्त ये चारतरकीताज सर पर रखने का उसको हक़ होगा।
फिर फ़रमाते हैं कि क्या ही अच्छा हो अगर पर्दा दरमियान से उठ जाए और सारे भेद खुल जाएं और ग़ैरियत दूर हो जाए और ये आवाज़ दी- ”बी यबसरो अवबी यबसरो अव यसमा वबी यनतक़” मुझ ही से देखता है, मुझ ही से सुनता है और मुझ ही से बोलता है।