और तुम्हारा परवरदिगार इरशाद फ़रमाता है कि तुम मुझसे दुआएं मांगो,

मैं तुम्हारी (दुआ ज़रूर) क़ुबूल करूंगा। (कुरआन-60:40)

 

ख़ुदा तक न तो (कुरबानी के) गोश्त ही पहुंचेंगे और न ही खून,

(हां) मगर उस तक तुम्हारी (नेकी व) परहेज़गारी (ज़रूर) पहुंचेगी।

(कुरआन -37:22)

 

पस तुम अल्लाह को ईख्लास के साथ पुकारो

अगरचे काफिरों को नागवार गुजरे। (कुरआन-14:40)

 

अल्लाह के नज़दीक दुआ से ज्यादा कोई चीज़ मुकर्रम नहीं।

(इब्ने माजा-280, मिश्कारत-194.11)

दुआ इबादत की अस्ल है।  (तिरमिजी2.173ए मिश्कात-194.10)

अल्लाह से उसका फ़ज़ल मांगा करो क्योंकि अल्लाह सवाल और हाजत तलबी को पसंद फ़रमाता है और सबसे बड़ी इबादत ये है कि इन्सान सख्ती के वक्त फ़राख़ी का इंतेज़ार करे।  (मिश्कात-195.15)

जो शख्स अल्लाह से अपनी हाजत का सवाल नहीं करता, अल्लाह का उस पे गज़ब होता है। (यानी दुआ नहीं करने वाले से ख़ुदा नाराज़ होता है।)

(मिश्कात-195.16, हाकिम-491)

दुआ मोमिन का हथियार है और दीन का सुतून और आसमान व ज़मीन का नूर है। (हाकिम)

जिस शख्स के लिए दुआ के दरवाजे खोल दिए गये, उसके वास्ते रहमत के दरवाजे खुल गये और अल्लाह से कोई दुआ इससे ज्यादा महबूब नहीं मांगी गयी कि इन्सान उससे आफियत (सेहत, सलामती, अमन, हिफाजत) का सवाल करे। (तिरमिजी, हाकिम, मिश्कात-195.17)

गुनाह या रिश्ता तोड़ने की दुआ मांगना हराम है और ऐसी दुआ अल्लाह कुबूल नहीं करता।

(मिश्कात-196.35)

कुबूलियत का यकीन कामिल रखते हुए अल्लाह से दुआ मांगो (ज़रूर कुबूल होगी)। अल्लाह लापरवाही की दुआ कुबूल नहीं करता। (मिश्कात 2.195)

दुआ से नाउम्मीद न हो क्योंकि दुआ के साथ कोई हलाक नहीं होता।

(हाकिम-494)

जो भी दुआ की जाती है वो कुबूल होती है बशर्ते कि उसमें किसी गुनाह या नफ़रत की दुआ न हो। दुआ कुबूल होने की तीन सूरतें हैं –

  1. जो मांगी जाए वही मिल जाए
  2. मांगी हुई चीज़ के बदले आख़िरत का अज्र व सवाब दे दिया जाए
  3. मांगी हुई चीज़ तो न मिले मगर कोई आफ़त या मुसीबत जो आने वाली थी टल जाए।

(मुस्नद अहमद-10709)

जो चाहता है कि मुसीबत व परेशानी के वक्त उसकी दुआ कुबूल हो तो उसे चाहिए कि आराम व फ़राख़ी के वक्त दुआ करता रहे। (तिरमिजी 2.175, मिश्कात1.195)

और दुआ निजात दिलाती उस बला से जो आ चुकी है और (उससे भी) जो बला आने वाली है। जब बला व मुसीबत आती है तो दुआ उसे दूर करती है और जो बला व मुसीबत आने वाली होती है उससे दुआ लड़ने लगती है। उस वक्त तक जब तक कि उससे निजात न मिल जाए।

(मिश्कात-195)

दुआ के लिए न कोई वक्त शर्त है न तहारत न वजू। दुआ में किसी मख्सूस अल्फ़ाज़ की कैद नहीं। दुआ के लिए हाथ उठाना भी ज़रूरी नहीं।

दुआ में ज़ाहिरी तौर पर कोई शर्त नहीं है, मगर यक़ीन व इख्लास का होना ज़रूरी है। यकीन ये रहे कि ज़मीन व आसमान के सारे ख़जाने अल्लाह के पास है, वो चाहेगा तो ही अता होगा और उसे अता होगा, जो मांगेगा।

इख्लास ये रहे कि मांगना दिल की गहराइयों से हो, उसमें शिद्दत (तड़प) हो, सख्त मोहताजी हो, कामिल बेबसी हो। कुरआन में इसे ”इजतेराब” लफ्ज़ से ताबीर किया गया है। यही यक़ीन दरअस्ल, दुआ की रूह है। ”इन्नमल- आमालो- बिन्नियात”  सब कामों का दारोमदार नियत पर है। दुआ आजिज़ी व इन्केसारी के साथ की जाए, ग़फ़लत बेपरवाई से की गई दुआ कुबूल नहीं होती।

अपने परवरदिगार से गिड़गिड़ाकर और चुपके- चुपके दुआ करो।

(कुरआन-55.7)

 

दुआ कुबूल क्यूं नहीं होती?

हज़रत इब्राहीम अदहम रज़ी. से किसी ने पूछा कि क्या वजह है कि हमारी दुआएं कुबूल नहीं होती। इस पर आपने फ़रमाया-‘तुम हज़रत मुहम्मद ﷺ को पहचानते हो लेकिन उनके बताए रास्ते पर नहीं चलते, क़ुरान को पढ़ते हो मगर उस पर अमल नहीं करते, ख़ुदा की दी हुए नेअमत खाते हो लेकिन उसका शुक्र अदा नहीं करते, शैतान को जानते हो मगर शैतानियत से नहीं बचते, मौत से आगाह हो मगर उसकी तैय्यारी नहीं करते, मुर्दे को दफन करते हो मगर इबरत हासिल नहीं करते। तुम अपने ऐबो बुराईयों को सुधारना छोड़ दिया और दूसरों के ऐब गिनने में लगे हो। असल व सहीं काम करने के बजाय ग़लत व बुरे कामों में लगे हो और पूछते हो कि दुआ क्यों कुबूल नहीं होती।’

हर किसी के लिए दुआ करते रहें,

हो सकता है आपकी दुआ से किसी का काम बन जाए।