मीम मुर्शिद से मिला, हमको मुहब्बत का सबक़,

रे से राहत मिली, और रहे हमारे मुतलक,

शीन से शिर्क़ हुआ दूर दिल से,

दाल से दस्त मिला और मिला दिल दिल से।

हज़रत मुहम्मद ﷺ को देखकर जो ईमान लाए उसे सहाबी कहते हैं। सहाबी के मायने होते हैं ”शरफे सहाबियत” यानि सोहबत हासिल करना। जो हुजूर ﷺ की सोहबत में रहे वो सहाबी हुए। आलातरीन निसबत के एतबार से सहाबी अपने आप में अकेले हैं जिन्हें हुजूर ﷺ की कुरबत नसीब हुई, यहां ग़ैर की समाई नहीं। तसव्वुफ़ में सूफ़ीयों ने इसी इरादत को ‘मुरीदी’ का नाम दिया है। मुरीदी का मफ़हूम भी यही है कि जिस मुर्शिद कामिल से लगाव व ताल्लुक़ पैदा हो जाए और सच्चे दिल से उनकी तरफ़ माएल हो जाए तो उनकी ख़िदमत में आख़िरत सवांरने के लिए इताअत व नियाजमंदी के साथ फ़रमाबरदार हो जाए। ये हुक्मे ख़ुदा की ऐन तामील है-

ऐ ईमानवालों ख़ुदा से डरो और सच्चों के साथ रहा करो।

(कुरआन-9.सूरे तौबा-119)

इस आयात में तीन बातें कही गयी हैं एक ईमान-बिल्लाह, दुसरा तकवा-अल्लाह और तीसरा सोहबत-औलियाअल्लाह। सबसे पहले ईमान के बारे में कहा गया है कि ईमान को अव्वलियत हासिल है। फिर तकवा के बारे में कहा गया है। तकवा की जामे तारीफ में सूफ़ियों ने कहा कि- ‘ख़ुदा तुझे उस जगह न देखे जहां जाने से तूझे रोका है और उस जगह से कभी गैर हाजिर न पाए जहां जाने का हुक्म दिया है।’ फिर कहा गया कि सिर्फ हुसूले ईमान और वसूले तक़वा व तहारत ही काफी नहीं है बल्कि इसके बाद भी एक मरतबा है जिसे एहसान की तकमील कहते हैं, जो शैख़ की सोहबत से हासिल होता है।

यहां सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि अल्लाह ईमानवालों से बात कर रहा है। ये नहीं फ़रमा रहा कि सच्चों के साथ हो जाओ और ईमान ले आओ, बल्कि ये फ़रमा रहा है कि ईमान लाने के बाद भी अल्लाह से डरना और सच्चों की सोहबत ज़रूरी है।

हाजी इमदादुल्ला शाह महाजर मक्की रज़ी. और इमाम ग़ज़ाली रज़ी. फ़रमाते हैं कि हुजूर ﷺ फ़रमाते हैं- शैख़ अपने हल्कए मुरीदैन में इस तरह होता है, जिस तरह नबी अपनी उम्मत में होता है। (तसफिया-तुल-कुलूब:4) (इहयाउल उलूम)

हज़रत अबुतालिब मक्की रज़ी. फ़रमाते हैं कि बुजुरगाने दीन ने फ़रमाया – ‘जो नबी के साथ बैठना चाहे उसे चाहिए अहले तसव्वुफ़ की मजलिस व सोहबत इख्तियार करे। जिस तरह वहां नबी की सोहबत ज़रूरी है यहां भी इस के लिए शेख़ का होना ज़रूरी है। अगर शैखे कामिल की नज़र में हो और हर अमल फ़रमान के मुताबिक करे और अपने तमाम इख्तियार व इरादों को अपने शेख़ के दस्ते इख्तियार में दे दे तो बहुत जल्द मंजिले मकसूद व मकबूलियत हासिल होगी।’ (कुतुल कुलूब)

ग़ौसे आज़म अब्दुल क़ादिर जिलानी रज़ी. फ़रमाते हैं- ‘बेशक हक़ीक़त यही है कि अल्लाह की आदते जारिया है कि ज़मीन पर शैख़ भी हो और मुरीद भी, हाकिम भी हो और महकूम भी, ताबेअ भी हो और मतबूअ भी (इन्सान इस बात पर पुख्ता यक़ीन रखे) कि ये सिलसिला आदम अलैहिस्सलाम से क़यामत तक के लिए है’। (गुनियातुत तालेबीन:840)

शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस देहलवी रज़ी. फ़रमाते हैं- ‘ज़ाहिरी तौर पर बिना मां-बाप के बच्चा नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह बातिनी में बिना पीर के अल्लाह की राह मुश्किल है।’ और फ़रमाते हैं – ‘जिसका कोई पीर नहीं उसका पीर, शैतान है।‘  (अलइन्तेबाह:33)

‘हर मुरीद ये यकीन रखे कि बेशक तुम्हारा पीरे कामिल ही वो है जो अल्लाह से मिलाता है। तुम्हारा ताल्लुक अपने ही पीर के साथ पक्का हो, किसी दुसरे की तरफ न हो।’

शैख़ अब्दुल हक़ मोहद्दिस देहलवी रज़ी. फ़रमाते हैं-‘अपने पीर से मदद मांगना, हजरत मुहम्मद ﷺ से मदद मांगना है, क्योंकि ये उनके नाएब और जानशीन हैं। इस अक़ीदे को पूरे यक़ीन से अपने पल्लु बांध लो।’

हक़ीक़ी निजात के लिए अपने इबादत व मुजाहिदे से पहले मुर्शिद ज़रूरी है और सुननत-अल्लाह भी इसी तर्ज़ पर जारी है। इसी रहबरी में कामयाबी है।

 

क़ुरान में बैअत की अहमियत

बैअत की अहमियत के बारे में क़ुरान में है-

‘ऐ ईमानवालों! तुम अल्लाह से डरते रहो और उस तक पहुंचने का वसीला तलाश करो और उसकी राह में जिहाद करो ताकि तुम फलाहो कामयाब हो जाओ’ (क़ुरान-5:35)

इस आयत में पूरा तसव्वुफ़ ही सिमट आया है, यहां फलाहो कामयाबी के लिए चार बातें कही गयी हैं-

ईमान–  जुबान से इकरार करना और दिल से तस्दीक़ करना कि अल्लाह एक है और हुजूर ﷺ अल्लाह के रसूल हैं।

तक़वा–  अल्लाह ने जिस काम का हुक्म दिया उसे करना और जिस से मना किया है उस से परहेज़ करना।

वसीला–  अल्लाह के नेक बंदों की सोहबत इख्तियार करना और उनसे रहबरी हासिल करना।

जिहाद–  अपने नफ्स और अना (मैं) को अल्लाह की राह में मिटा देना।