हज़रत दाता गंजबख़्श अली हजवेरीؓ फ़रमाते हैं-
दीने मुहम्मदी, दुनियाभर में सूफ़ीया किराम की बदौलत फैली। आज भी अगर इन्सान को सुकूने कल्ब चाहिए तो सूफ़ीयों की बारगाह में आना ही पड़ेगा। और ऐसा हो भी रहा है। लोग सूफ़ीयों की ख़ानक़ाहों में रब की तलाश कर रहे हैं और जो यहां नहीं आ पा रहे हैं, तो वो जुनैद बग़दादीؓ, इमाम ग़ज़ालीؓ, इब्ने अरबीؓ, मौलाना जलालुद्दीन रूमीؓ जैसे सूफ़ीयों की किताबों से फ़ायदा उठा रहे हैं।
तसव्वुफ़ के इस उरूजियत को देखकर, अक्सर लोग इस पर तरह तरह के झूठे मनगढ़ंत इल्ज़ामात भी लगाते हैं। यहां तक कहते हैं कि तसव्वुफ़ का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं है, क्योंकि हुज़ूरﷺ के ज़माने में ये लफ़्ज़ इस्तेमाल ही नहीं होता था। अगर सिर्फ़ इसी बिना पर, तसव्वुफ़ ग़ैर इस्लामी है, तो फिर कुरान का तर्जुमा व तफ़्सीरें, बुखारी शरीफ़, मुस्लिम शरीफ़, तिरमिजी शरीफ़ जैसी हदीसों की किताबें, फि़क़्ह, मानी व बयान सभी के सभी ग़ैर इस्लामी हैं, क्योंकि ये सब भी हुज़ूरﷺ के दौर में नहीं थी।
उस वक़्त सहाबी, दीन को फैलाने पर ही ज़ोर दे रहे थे। उन्हें किसी और काम की फुरसत नहीं थी। इस दौर के बाद सहाबी, ताबेईन व तबे ताबेईन, इन इल्मों की तरफ़ तवज्जह किए। जिन हज़रात ने कुरान के मानी व मतलब पर काम किया, वो मफु़स्सिरिन कहलाए और इस इल्म को इल्मे तफ़सीर कहा गया। जिन्होने हदीस पर काम किया वो मुहद्दिसीन कहलाए और इस इल्म को इल्मे हदीस कहा गया। जिन्होने इस्लामी कायदा कानून पर काम किया वो फुक़्हा कहलाए और इस इल्म को इल्मे फिक़्ह कहा गया। जिन्होने तज़्कीया ए नफ़्स व रूहानियत पर काम किया वो सूफ़ी कहलाए और इस इल्म को इल्मे तसव्वुफ़ कहा गया।
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सहाबा किराम इल्म तफ़सीर, हदीस, फिक़्ह व तसव्वुफ़ से बेखबर थे। बल्कि ये कहा जाए कि वे इन सब इल्मों में माहिर थे तो गलत नहीं होगा। हां ये ज़रूर है कि उन्हें मफु़स्सिर या मुहद्दिस या फुक़्हा या सूफ़ी नाम से नहीं पुकारा जाता, लेकिन ये सारी ख़ासियत उनमें मौजूद थी। उस वक़्त हक़ीक़त थी, नाम न था, आज नाम है लेकिन हक़ीक़त बहुत कम है।
सूफ़ी लफ़्ज़ ‘सफ़ा’ से निकला है। और सफ़ा, इन्सानी सिफ़त नहीं है, क्योंकि इन्सान तो मिट्टी से बना है और उसे बिलआखि़र ख़त्म ही होना है। इसके उलट नफ़्स की अस्ल मिट्टी है, इसलिए वो इन्सान से नहीं छुटती। इसलिए नफ़्स का ख़ात्मा और सफ़ा का हासिल करना, बगैर मारफ़ते इलाही के मुमकिन नहीं। बगैर फ़नाहियत के ये हासिल नहीं होती। लेकिन इसके हासिल होने के बाद सफ़ा या नूरानियत, फि़तरत में बस जाती है।
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bhai mujhe bhi chahiye kashf ul mahjub hindi bhasha me. me kha se khrid skta hu. maine kafi jagah pta kiya mili nhi