हमारी तहज़ीब एक पेड़ की तरह है। ये जितना हरा भरा रहेगा, हम उतने ही खुशहाल रहेंगे और तरक्क़ी करेंगे। लेकिन आज, ये मग़रिबी बिमारी में मुबतेला (ग्रस्त) है। जिसकी वजह से ये बहुत कमज़ोर हो चला है, दिन ब दिन सूखता जा रहा है और अंदर से खोखला भी होता जा रहा है।

हम में से बड़े ओहदेवालों, बुजूर्गों और आलिमों की ख़ासतौर पर ज़िम्मेदारी है कि इसकी हिफ़ाज़त करें। लेकिन बहुत से ज़िम्मेदार इससे बचते हैं, बल्कि कुछ तो इसकी हक़ीक़त से भी बेख़बर हैं। वो इसकी मज़बूती के लिए काम चलाऊ तरीका बताते हैं, मानो कमज़ोर पेड़ में लकड़ियों बल्लियों का टेक लगाने कह रहे हों और बहाना ये है कि कम से कम ये खड़ा तो रहे। जबकि सहीं मायने में इसकी मज़बूती के लिए, इसकी जड़ों पर ध्यान देना होता है, उसकी असल पर काम करना होता है।

अब अगर इस पेड़ को फिर से मज़बूत होना है तो इसे रूहानियत का पानी चाहिए, तरीक़त की खाद चाहिए और बड़े-बड़े किसानों यानी सूफ़ी बुजूर्गों की हिकमत चाहिए। तभी और सिर्फ तभी ये पेड़ बच सकता है, फिर से हरा भरा हो सकता है। फिर से इसमें अच्छाई की पत्तियां उगेंगी, फिर से मुहब्बत के फल लगेंगे और फिर से अमन के फूल खिलेंगे। इसके साथ ही साथ, ज़ात-पात की बेकार टहनियां टूट जाएगी, नफ़रत की सूखी पत्तियां झड़ जाएगी और सारे इन्सान खुशहाली व तरक्क़ी के उस मुक़ाम पर पहुंच जाएंगे जहां हक़ीक़त में उन्हें पहुंचना है। अब सवाल ये उठता है कि इसे शुरू कैसे किया जाए, तो इसका जवाब ख़ुदा के इस कलाम में मिलता है।

 

”और जो राहे हक़ में कोशिश करते हैं,(तो) ख़ुदा उन्हें सही रास्ता दिखा देता है और बेशक ख़ुदा नेक व साहिबे एहसान (सूफ़ीयों) के साथ है।”

(क़ुरान 29:69)

 

ये रिसाला (पत्रिका), उसी राहे हक़ में एक कोशिश है।

रब हमें उन सूफ़ीयों के नक्शे क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और अपने खास कुर्बत व इनामात से नवाज़े।

आमीन!

 

(सैफुद्दीन अयाज़)