मसनवी मौलाना रूमी- सूफ़ीयाना हिकायात, अख्लाकी तालिमात और आरिफ़ाना मकाशिफ़ात का वो नमूना है, जिसकी मिसाल नहीं मिलती।

ख़ुद मौलाना रूमी रज़ी. कहते हैं कि इसमें क़ुरान के राज़ छिपे हैं। जिस शख्स की जान में मसनवी का नूर होगा, बाक़ी हिस्सा उसके दिल में ख़ुद ब ख़ुद उतर जाएगा।

मौलवी हरग़िज़ नशुद मौलाए रोम

ता ग़ुलामी ए शम्स तबरेज़ी नशुद

(मौलाना रूमी, मौलाना नहीं बन पाता, अगर हज़रत शम्स तबरेज़ रज़ी. का ग़ुलाम नहीं होता।)

- मौलाना जलालुद्दीन रूमी रज़ी.

 

तलब, रब की राह की पहली ज़रूरत है। ढुंढने और खटखटाने के बगैर हक़ का दरवाजा न मिलता है न खुलता है। और इस दरवाजे की कुन्जी हिम्मत है।

चूं दर मअनी ज़नी बाज़त कुनन्द

पर्र फिकरत ज़न के शहबाज़त कुनन्द

बुराई या खुबी हो या फिर बेवकूफी हो, किसी पर यहां रोक नहीं। अगर एक मक़सद हो, उसके लिए दिल की लगन हो और हिम्मत हो तो बस फिर कामयाबी ही कामयाबी है।

मगर अन्दर खूब व ज़श्ते खवैश

बगर अन्दर इश्क व बर मतलूब खवैश

मगर आं के तो हक़ीरी या ज़ईफ़

बगर अंदर रहमत ख़ुदाए शरीफ़

इस सफर के लिए किसी साज़ो सामान की ज़रूरत नहीं। बिना किसी काबिलियत वाला गरीब अदना भी इस राह में उड़ने के काबिल है। यानि बेबस भी उड़ान भर सकता है। पानी पर पहुंचने के लिए लबों की खुश्की ख़ुद गवाह है कि ज़रूर मिलेगा। तेरी प्यास ही तेरी रहनुमा है। प्यास से होंठों का सुख जाना दरअस्ल ख़ुद पानी की तरफ से इशारा है कि ये परेशानी, पानी तक पहुंचा कर रहेगी।

जुस्तजू और जद्दो जहद मत छोड़ो क्योंकि पानी के बग़ैर प्यास का बुझना मुमकीन नहीं। और इतमिनान रखो कि पानी तक पहुंचोगे ही, क्योंकि तुम ही नहीं ढुंढ रहे हो उसे, पानी को भी तुम्हारी प्यास है।

खुश्की लब हस्त पैग़ामे ज़ आब

के बमाअत आरद यक़ीन इं इज़तेराब

तिश्नगां गर आब जवेन्दा ज़ जहां

आब हम जवेद बआलम तिश्नगां

जुस्तजू हर क़िस्म की रूकावटों को दूर कर देती है। यही आपकी लावलश्कर है और यही आपके जीत की ज़मानत भी है। ये इत्तेफ़ाक़ और क़िस्मत की बात है कि कभी कभी बेतलब भी खज़ाना मिल जाता है लेकिन इस वजह से जुस्तजू छोड़ना बेवकूफी है।

ज़ौक़े तलब पैदा करने के लिए तालिबों से दोस्ती रखना दवा का काम करती है। तलब सोच समझकर हो या किसी की नकल कर के हो, कभी बेकार नहीं जाती। ये भी सच है कि नकल करने वालों के लिए खतरा ज्यादा है अंदरूनी भी और बाहरी भी। लेकिन हक़ की रौशनी उसे सहारा देती है और शको शुब्ह के बादल छट जाते हैं।

जुस्तजू, किसी ग़रज से हो या बेग़रज हो, हक़ की कशिश ख़ुद ब ख़ुद खिंच लेती है। तलब की वजह कुछ भी हो उसकी अहमियत नहीं, सिर्फ सच्ची तलब ही ज़रूरी है। जो गिरफतार करने वाला है वही तलब पैदा करता है।

गर मोहिब्ब हक़ बूद लेग़ैरा, के नयाल दायमन मन खैरा।

नूरे हक़ बर नूरे हुस्न राकिब शूद, वआं गहे जां सूए हक़ राग़िब शूद।

लयक पैदा नेस्त आं राकिब बरो, जुज़ बआसार व बेगुफ्तार नको।

ताक़त की अहमियत नहीं है। मक़सद कितना ही बड़ा क्यूं न हो और तुम कितने ही छोटे क्यों न हो, जुस्तजू होनी चाहिए। तेज़ चलें या धीरे चलें, दोनों ही मंज़िल पर पहुंचते हैं, कोई जल्दी तो कोई देर से। तुम्हारा काम तो ये है कि अपनी तमाम ताक़तों को लगा दो और अपनी सोच को एक जगह केन्द्रित कर दो। इस संजीदा जद्दो जहद और सच्ची तलब के लिए पहली शर्त सच्ची लगन और दिली तड़प है। और इसके लिए अपनी ख्वाहिशात को रब के हवाले कर देना ज़रूरी है। हक़ के ताबेअ हो जाने की पहचान ये है कि आमाल व अक़वाल (कथनी करनी) में नेकी ज़ाहिर होने लगती है।

और ये तो सोचो ही मत कि उस बारगाह में कैसे हमें जगह मिल सकती है, हम उसके लायक़ नहीं हैं क्योंकि वो बारगाह बड़े रहीम व करीम का है। इतना लिहाज़ रखो कि उस वादी में हर तालिब (तलब करने वाला) का एक मक़ाम है और जहां से इजाज़त व दस्तूर के बग़ैर आगे जाना मुमकिन नहीं। तुम तो तलब और जुस्तजू से काम रखो, यही तुम्हे मंज़िले मक्सूद तक पहुंचाएगी।

दर तलब ज़न दाएमा तू हर दो दस्त

के तलब दर राह नेको रहबरस्त

 

ख़ुद तो मिट लूं, उनके पाने की नहीं मुश्किल मुझे।

मिल ही जाएगा मुझी में, वो संगे दरे महफिल मुझे।

इश्क की गर्मी से पैदा, दिल में होगी जब खलिश,

खैंच लेगी अपनी जानिब, देखना मंज़िल मुझे।

(ख़िज्र रूमी रहमतुल्‍लाह अलैह)