ऐ जलालुद्दीन रूमी शाहؓ जाने अंजुमन।

तेरी बज़्मे दिल में हैं, मस्नदनशीं ख़्वाजा हसनؓ।

तेरी हस्ती बन गई है, यादे अस्लाफ़े कोहन।

साया अफ़गन तुझ पे है, ज़िल्ले शाहे ज़मन।

इश्क़़ की जल्वागरी अब तेरे अफ़साने में है।

रौशनी ही रौशनी अब तेरे अफ़साने में है।

 

तेरे अफ़कारो नज़ायर का अजब अफ़साना है।

तेरी नज़रों में समाया जल्वए जानाना है।

तेरा दिल अब उस सरापा नाज़ का काशाना है।

एक ज़माना आज तेरे हुस्न का दीवाना है।

तेरी सुरत का तसव्वुर इस क़दर है ज़ौफि़शां।

सैकड़ों जल्वे नज़र आये ज़मीं व आसमां।

 

तेरे नग़मों में तेरे साज़े सुखन की बात है।

इब्तेदा ता इन्तेहां राज़े सुखन की बात है।

ज़ौक़े उल्फ़त में ये परवाज़े सुखन की बात है।

मरहबा, क्या खूब एजाज़े सुखन की बात है।

कफै़ में डुबी हुई है कायनाते ज़िन्दगी।

तुझको हासिल है हक़़ीक़त में हयाते सरमदी।

 

मदभरी आंखों पे मयखाने फि़दा होने लगे।

तुझपे साक़ी जामो पैमाने फि़दा होने लगे।

अहले अक़्लो होशो फ़रज़ाने फि़दा होने लगे।

शाने महबूबी पे दीवाने फि़दा होने लगे।

एक हुजूमे आशिकां है आस्ताने पे तेरे।

एक ज़माना रश्क करता है ज़माने पे तेरे।

 

अब सबक़ लेगा ज़माना तेरे सुब्हो शाम से।

दर्स दुनिया को मिलेगा इश्क़़ के पैग़ाम से।

तूने मतवाला बनाया है, नज़र के जाम से।

है मुहब्बत तेरे ‘सादिक़’ को भी तेरे नाम से।

है तेरे औसाफ़ से ज़ाहिर तेरा हुस्ने अमल।

कुदसियों की बज़्म में है, तेरा चर्चा आजकल।

(हज़रत सादिक़ देहलवी हसनीؓ)

 

 

इससे बड़े करम की

क्या बात होगी कि

मेरे हुज़ूर ने मुझे

तीन दिनों से ज़्यादा

कभी भूखा नहीं रखा।

 

हयाते मुबारका हज़रत मौलाना क़ारी ख़्वाजा जलालुद्दीन खिज़्र रूमी शाह रहमतुल्लाह अलैह

सुलतानुल औलिया हज़रत कि़बला ख़्वाजा हसन शाहؓ ने अपने जि़ंदगी का हर लम्हा, सिलसिलए आलिया जहांगीरिया को बढ़ाने व फैलाने के लिए वक़्फ़ कर दिए। इस कुरबानी व मेहनत का ये नतीजा निकला कि हिन्दुस्तान व उसके बाहर के इलाकों में इस सिलसिले का परचम लहराने लगा और आसमाने तसव्वुफ़ में कई सितारे अपनी चमक बिखेरने लगे।

ऐसे ही एक सितारे हज़रत मौलाना क़ारी ख़्वाजा जलालुद्दीन खिज़्र रूमीؓ, जिन्होंने न जाने कितने दिलों को मारफ़त की चमक से रौशन कर दिया, न जाने कितने प्यासों को रूहानियत का जाम पिलाया और न जाने कितनों की जि़ंदगी में मुहब्बत भर दिया। आपके चाहनेवाले आपको कभी आपके लक़ब ‘खिज़्र’ से याद करते हैं तो कभी ‘इमामुल मुहब्बत’ (यानी मुहब्बत के ईमाम) पुकारते हैं। आप अपनी मिसाल आप हैं।

आपका ताल्लुक भारत के दिल यानी मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) से है। अगर ये कहा जाए कि आप यहां के ‘रूहानी सुल्तान’ हैं तो ग़लत न होगा। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर, वो खुशनसीब और मुबारक शहर है, जिसे आपके ‘आबाई वतन’ (यानी मातृभूमि) होने का फ़ख्र हासिल है। आपको हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़रसी और अरबी जैसी ज़बानों के साथ साथ ‘छत्तीसगढ़ी’ में भी महारत हासिल थी। आपके ईल्म का हर कोई लोहा मानता और दूर दूर तक आपके चर्चे थे।

जलाल व जमाल से आरास्ता आपकी ज़ाते गिरामी, कुदरत की सख़ावत से भी मालामाल थी। ज़हानत व ज़क़ावत से भी कुदरत ने आपको नवाज़ा। तालीमी दर्सगाह में क़ाबिल उस्ताद, लायक और फ़रमाबरदार शागिर्द इकट्ठे हो जाएं तो तहसील ईल्म के नताजे, यक़ीनी तौर पर बेहतरीन बर आमद होंगे।

आपने ज़ाहिरी ईल्म हासिल करने के बाद आपने रायपुर को अपनी इमामत से भी नवाज़ा। फिर आपने ड्राफ्ट्समैन की नौकरी की। लेकिन आपकी जुस्तजू रूहानियत की तरफ़ ज़्यादा रही। इसी वास्ते आपने बहुत से सफ़र भी किए, पर आपको सुकून नहीं मिला। मिलता भी कैसे, कुदरत ने तो आपको सिलसिलए जहांगीरी के लिए मुक़र्रर कर रखा था।

फ़राएज़ शरय्या की अदायगी के साथ मुलाज़मत के फ़राएज़ भी, ज़िम्मेदारी और हुस्नो खुबी के साथ अन्जाम देते रहे। लेकिन साथ ही अपने तौर से ज़िक्र व फि़क्र का सिलसिला भी जारी रखा। इन्हीं अय्याम में ताजदारे सिलसिलए जहांगीरी यानी सुल्तानुल आरफे़ीन हज़रत मुहम्मद नबी रज़ा शाहؓ से रूहानी तौर पर निसबत क़ायम हुई। जिसकी वजह से मुजाहिदे में फ़ैज़ान का रंग साफ़ झलकने लगा। लेकिन इस फ़ैज़ान का ज़हूर और तकमील उस वक़्त हुई, जब हज़रत ख़्वाजा हसन शाहؓ के दस्ते हक़ पर बैअत हुए। इसके बाद आपके ज़ाहिर व बातिन में बहुत ज़्यादा बदलाव आया। कुर्ता, सदरी और तहबंद के साथ सर पर ताजे जहांगीरी, इस लिबास में जो भी आपको देखता, हज़ार जान से फि़दा हो जाता।

पीरो मुर्शिद की महफि़ल में अपने साथ के लोगों में आपको कुदरती तौर पर नुमायां खुसूसियात हासिल थी। आप अक्सर ऐसी मजलिसों में उर्दू व फ़ारसी के बामक़सद व बेहतरीन अश्आर व ग़ज़लें निहायत ही पुरसोज़ और वालेहाना अंदाज़ में इस तरह पढ़ते कि अहले महफि़ल पर वज्द तारी हो जाता। फ़ातेहा के मौके पर कुरान की कि़रत हो या शजरा ख़्वानी हो हमेशा आप ही आगे होते। आपका लिखा ‘शिजरा मन्जूम अरबी’ आज भी खानकाहे हसनी और खानकाहे जहांगीरी में मक़बूल है।

आपके पीरो मुर्शिद दीन के मामले में बहुत सख़्त मिजाज़ थे। उनका हुक्म पत्थर की लकीर हुआ करती थी। जो काम बोलते मुरीद पर उसे अदा करना ज़रूरी होता था। ये सख़्ती दरअस्ल जौहरी का वो हुनर था, जो एक हीरे को पहचानता था। और अंदाज़ भी निराला, मुरीदों को आराम नहीं करने देते, हमेशा किसी न किसी काम में मशगूल रखते। कहीं भी इबादत रियाज़त में लगा देते, न दिन देखते न रात, न जगह न हालात। कभी किसी कब्रस्तान में रात भर ज़िक्र करने कहते तो कभी सुनसान इलाके में चिल्ला करवा देते।

12 सालों तक इसी भट्टी में पक कर खिज़्र रूमी शाहؓ एक हज पैदल अदा फ़रमाए और एक हज अपने पीरो मुर्शिद के साथ अदा फ़रमाए। कई चिल्ले किए और कई साल रूहानी सफ़र में रहे, जिसमें पैदल चिटगांव (बंगलादेश) का सफ़र भी शामिल है। इसी सफ़र का ज़िक्र करते हुए आप फ़रमाते हैं. ‘हुज़ूर ने मुझे यकायक चिटगांव के सफ़र में जाने का हुक्म दे दिया। मेरे पास न ज़रूरी सामान था और न ही कोई तैय्यारी थी। लेकिन पीर का हुक्म खुदा का हुक्म होता है। मैं सफ़र पर निकल गया। कभी मुझे बहुत ज़ोर की भूख लगती तो मैं पलट पलट कर देखता, हुज़ूर को याद करता। यक़ीन जानिए हुज़ूर हमेशा मेरे साथ ही रहे। सफ़र में मुझे कोई न कोई मिल जाता जो खाना खिला देता। इससे बड़े करम की बात क्या होगी कि मेरे हुज़ूर ने कभी मुझे तीन दिनों से ज़्यादा भूखा नहीं रखा। ये उन्हीं की इनायत है कि मुझसे अपना काम ले लिया।’

पीरो मुर्शिद ने आपको शफ़ेर् खिलाफ़त से नवाज़ा और ‘सी.पी. एण्ड बरार’ में सिलसिले के रूहानियत को फैलाने पर मामूर किया। (पहले मध्यप्रदेश व विदर्भ मिलकर एक प्रदेश था, जिसका का नाम ‘सी.पी एण्ड बरार’ था और राजधानी नागपूर थी। बाद में विदर्भ अलग होकर महाराष्ट्र में मिल गया। अब तो मध्यप्रदेश से भी छत्तीसगढ़ अलग हो गया है।) पीर ने हीरे होने की तस्दीक कर दी थी। अब रौशनी बिखेरने का वक़्त आ गया। आपने वो रौशनी बिखेरी कि लाखों दिलों को रूहानियत से रौशन कर दिया। आज भी वो दीवानगी देखी जा सकती है। आपने कुछ वक़्त बाराबंकी व रायपुर को इमामत से सरफ़राज़ करने के बाद, दुर्ग में खानकाह की बुनियाद रखी। उस इलाके में ये किसी भी सिलसिले की पहली खानकाह थी। आपने भी बहुत से ख़लिफ़ा मुकर्रर किए। इनकी तादाद 40 मानी जाती है लेकिन ‘निगारे यज़दां’ में 60 के करीब बताई गयी है।

ये मुख़्तसर सी सवाने हयात तो एक तरह से तारूर्फ ही है। आपने रूहानियत का वो मुक़ाम हासिल किया और वो कारनामा अंज़ाम दिया है कि अगर उसे कलमबंद किया जाए तो अलग से एक ज़ख़ीम किताब तैय्यार हो जाए। जबकि आपने 12 साल जो पीरो मुर्शिद की ख़िदमत में गुज़ारे और जो रूहानी मामलात गुज़रे, उन्हें बयान करने की हमारे क़लम की हैसियत ही नहीं।