हज़रत अहमद रज़ा खां फ़ाजि़ल बरेलवीؓ, जिन्हें हम ‘आला हज़रत’ के नाम से जानते हैं, वो हस्ती हैं, जिन्होंने शरीअते मुहम्मदीﷺ को नज्द के फ़साद से महफूज़ किया और दीन की तारीख़ में नई इबारत लिखी। इसी वजह से आपको तमाम अहले सुन्नत बगैर किसी शक व शुब्ह के ‘मुजद्दीद ए वक़्त’ तस्लीम करती है। आज शरीअ़त का नाम आते ही आपका जि़क्र होने लगता है, तो क्यूं न हम भी इस बाब में आपके मल्फ़ूज़ात व तालीमात से फ़ैज़ हासिल करें।
वाह क्या जूदो करम है, शहे बतहा तेरा।
नहीं, सुनता ही नहीं, मांगने वाला तेरा।
मैं तो मालिक ही कहूंगा, के हो मालिक के हबीब।
यानी महबूब व मोहिब में नहीं मेरा तेरा।
तेरे क़दमों में जो हैं, ग़ैर का मुंह क्या देखें।
कौन नज़रों पे चढ़े, देख के तलवा तेरा।
तेरे टुकड़ों से पले, ग़ैर की ठोकर पे न डाल।
झिड़कियां खाएं कहां, छोड़ के सदक़ा तेरा।
तुझ से दर, दर से सग और सग से है मुझको निसबत।
मेरे गरदन में भी है, दूर का डोरा तेरा।
इस निशानी के जो सग हैं, नहीं मारे जाते।
हश्र तक मेरे गले में रहे पट्टा तेरा।
तेरी सरकार में लाता है ‘रज़ा’ उसको शफ़ीक़।
जो मेरा ग़ौस है और लाडला बेटा तेरा।
हयाते फ़ाज़िल बरेलवी (मुख़्तसर)
फाजि़ल बरेलवी मौलाना अहमद रज़ा खानؓ नसबन पठान, मसलकन हनफ़ी और मशरबन क़ादरी थे। वालिद माजिद मौलाना नक़ी अली खानؓ (1297हि./1880) और जद्दे अमजद मौलाना रज़ा अली खानؓ (1282हि./1865) आलिम और साहिबे तसनीफ़ बुजुर्ग थे। फाजि़ल बरेलवी की विलादत 10 शव्वाल 1272 हि. मुताबिक 14 जून 1856 को बरेली (यूपी) में हुई। नाम ‘मुहम्मद’ रखा गया और तारीखी नाम ‘अलमुख़्तार’ (1272हि.) तजवीज़ किया गया जद्दे अमजद ने ‘रज़ा’ नाम रखा। बाद में आपने खुद अपने नाम में ‘अब्दुल मुस्तफ़ा’ का इज़ाफ़ा किया।
आप बुलन्द पाया शायर भी थे और ‘रज़ा’ तख़ल्लुस लिखते थे। लोग ‘आला हज़रत’ और ‘फ़ाजि़ल बरेलवी’ के नाम से आपको याद करते हैं। आप बहुत से इल्म व फ़नों में माहिर थे।
कुरान, हदीस, उसूले हदीस, फि़क़्ह, जुमला मज़ाहिब, उसूले फि़क़्ह, तफ़सीर, अक़ाएद, कलाम, नहू, सफ़र्, मआनी, बयान, बदीअ, मनतक़, मुनाज़रा, फ़लसफ़ा, हयात, हिसाब, हिनदसा वगैरह का इल्म अपने वालिद मोहतरम से हासिल किये।
हज़रत शाह आले रसूलؓ, शेख अहमद मक्कीؓ, शेख अब्दुल रहमान मक्कीؓ, शेख हसीन बिन सालेह मक्कीؓ, शेख अबुल हसन नूरीؓ जैसे आलिमों से कि़रात, तजवीद, तसव्वफु़, सुलूक, अख़लाक़, असमा उर रिजाल, तारीख, नअत, अदब का इल्म हासिल किए।
इसके अलावा खुद के मुताला व बशीरत से अरसमा तयकी, जबर व मुकाबला, हिसाब सैनी, तौकीत, मन्ज़र व मराया, जफ़र, नज़्म व नस्र फारसी, नज़्म व नस्र हिन्दी, खते नस्ख, खते नस्तलीक़ वगैरह का इल्म हासिल किया।
आप हज़रत शाह आले रसूलؓ मारहरा से मुरीद हुए। आपको क़ादरी, चिश्ती, नक्शबंदी, सोहरवर्दी, अलविया सिलसिले में खिलाफ़त थी।
मुफ़्तीए आज़म हिन्दؓ के सवाल और आला हज़रतؓ के जवाब
अर्ज़: मुफ़्ती ए आज़म हिन्दؓ फ़रमाते हैं. आला हज़रतؓ की खि़दमत में, मैं और मौलवी अब्दुल अलीम साहब हाजि़र थे। मौलवी साहब ने आपसे अज़्र किया. हज़रत मुहम्मदﷺ से पहले क्या चीज़ पैदा फ़रमाई गई?
इरशाद: हदीस मुबारक है. ऐ जाबिर बेशक अल्लाह ने तमाम चीज़ों से पहले तेरे नबी का नूर अपने नूर से पैदा फ़रमाया। फिर रब ने चार दिन में आसमान और दो दिन में ज़मीन पैदा फ़रमाया।
अर्ज़: इल्मे बातिन का अदना दर्जा क्या है?
इरशाद: हज़रत जुन्नुन मिस्रीؓ फ़रमाते हैं. मैं एक बार सफ़र किया और वो इल्म लाया जिसे खास व आम सभी ने कुबूल किया। दोबारा सफ़र किया और वो ईल्म लाया जिसे खास ने तो कुबूल किया लेकिन आम ने नहीं किया। तीसरी बार सफ़र किया और वो इल्म लाया जिसे न खास ने कुबूल किया न आम लोगों ने।
यहां सफ़र का मतलब दिल का सफ़र है।
‘अक़्ल वाले ही नसीहत समझते हैं’ (कुरान 3:7)
अदना दर्जे का इल्म बातिन ये है कि आलिमों से तस्दीक़ करे और आलिम से मुहब्बत रखे।
अर्ज़: क्या वाज़ (तक़रीर) का ईल्म होना ज़रूरी है?
इरशाद: जो आलिम नहीं उसे वाज़ करना हराम है।
अर्ज़: आलिम की क्या तारीफ़ है?
इरशाद: आलिम की तारीफ़ यह है कि अक़ीदे पूरे तौर पर आगाह हो और मुस्तिक़ल (अटल) हो और अपनी ज़रूरियात को बगैर किसी की मदद से किताब से निकाल सके।
अर्ज़: क्या मुजाहिदे में उम्र की क़ैद है?
इरशाद: मुजाहिदे के लिए कम अज़ कम अस्सी बरस दरकार होते हैं। बाक़ी तलब ज़रूर की जाए।
अर्ज़: एक शख़्स अस्सी बरस की उम्र से मुजाहिदात करे या अस्सी बरस मुजाहिदा करे।
इरशाद: आम तौर पर अगर रब की इनायत न हो तो इस राह की फ़तह में अस्सी बरस लग जाते हैं। लेकिन रब की रज़ा हो तो अदना भी लम्हेभर में अब्दाल कर दिया जाता है। अल्लाह फ़रमाता है: ‘वह जो हमारी राह में मुजाहिदा करे, हम ज़रूर उन्हें अपने रास्ते दिखा देंगें’।
अर्ज़: क्या दुनियावी ख्वाहिशात वाला दिल, ख़ुदा व उसके रसूलﷺ के जि़क्र में डुबे हुए दिल पर कुछ असर करता है?
इरशाद: हां करता है।
अर्ज़: रुकूअ व सज्दे में कितनी देर ठहरना चाहिए?
इरशाद: रुकूअ व सज्दे में एक बार ‘सुब्हानल्लाह’ कहने तक रुकना फ़ज़्र है। इससे कम रुकने पर नमाज़ न होगी।
आला हज़रतؓ का जवाब
दोबारा बैअत होना कैसा है?
बिला वजह बैअत तब्दील करना शरई तौर पर मना है। लेकिन फ़ैज़ उठाना जायज़ है, बल्कि मुबाह है। एक बार तीन कलंदर हज़रत निज़ामुद्दीन औलियाؓ की खि़दमत में हाजि़र हुए और खाना मांगा। जब खाना पेश किया गया तो उन्होंने फेंक दिया। कहा. खाना अच्छा नहीं है, दूसरा लाओ। फिर लाया गया तो फिर फेंक दिया। जब तीसरी बार भी ऐसा किया, तो महबूबे ईलाही हज़रत निज़ामुद्दीनؓ ने उन्हें पास बुलाकर कान में कहा. ये खाना तो उस मुरदार से बेहतर था, जो तुमने रास्ते में खाया था। हज़रत के इस ग़ैब के इल्म को देखकर कलंदर कदमों पर गिर पड़े। हज़रत ने उन्हें उठाया और अपने सीने से लगाकर रुहानी गि़ज़ा अता की। उसके बाद कलंदर वज्द में रक़्स करने लगे और ये कहने लगे कि मेरे हुज़ूर ने मुझे नेअमत अता फ़रमाई। वहां हाजि़र लोगों ने कहा. कैसे बेवकफू लोग हो, तुम्हें तुम्हारे पीर ने नहीं बल्कि हमारे पीर ने नेअमत अता की है। इस कलंदर ने कहा. बेवकफू तुम हो, अगर मेरे पीर की नज़रे इनायत नहीं होती तो तुम्हारे पीर से मुझे कुछ नहीं मिलता। ये मेरे पीर का ही सदक़ा है कि तुम्हारे पीर से मुझे फ़ैज़ हासिल हुआ। ये सुनकर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे ईलाहीؓ फ़रमाते हैं. ये बिल्कुल सच कह रहा है। मुरीदी सीखना है तो इससे सीखो।