सबके लिए रह़मत

वो हर आलम के लिए रहमत

किसी आलम में रह जाते…

ये उनकी मेहरबानी है,

कि ये आलम पसंद आया…

हज़रत मुहम्मदﷺ सारे आलम के लिए रहमत और मुहब्बत हैं, चाहे वो इस दुनिया का हो या उस दुनिया का, चाहे किसी भी ग्रह या सौरमंडल का, चाहे इन्सान हो या जानवर, चाहे मुसलमान हो या न हो। हर किसी के लिए हुज़ूरﷺ मुहब्बत हैं। फातिमा कहती हैं. मुहम्मदﷺ का मतलब मुहब्बत है।

हुज़ूरﷺ की पैगम्बरी जि़ंदगी देखिए. जो ‘पढ़ अल्लाह के नाम से’ (इक़रा बिस्मे रब्बोकल्लजी) से शुरू हो रही है। पहला ही दर्स पढ़ने का दे रहे हैं। बल्कि इल्म (ज्ञान) का हासिल करना फ़र्ज़ कर रहे हैं और अज्ञानता के अंधेरे से निकाल रहे हैं। आप कह रहे हैं कि इल्म हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। पुरानी सामाजिक कुरीतियों को तोड़कर सबको एक होने का पाठ पढ़ा रहे हैं। सबको एक हो जाने की दावत दे रहे हैं। बच्चियों को जि़ंदा मार देने से रोक रहे हैं। दहेज से मना कर रहे हैं।

इन्सान एक चींटी तो बना नहीं सकता लेकिन सैकड़ो खुदा बना लेता है। हुज़ूरﷺ इन बातों से निकाल कर वहदानियत (एकेश्वरवाद) की तरफ आने की दावत दे रहे हैं। जो मक्की (मक्के के रहने वाले) उन्हें ‘सादिक़ उल वादुल अमीन’ (वादे का सच्चा, सत्यनिष्ठ और अमानतदार) कहते थे, वो अब दुश्मन हो गए हैं। हुज़ूरﷺ की पहाड़ के दूसरी तरफ फौज वाली बात मान रहे हैं, लेकिन ये नहीं मान रहे कि सबका मालिक एक है। बल्कि इस बात पर उन्हें सताया जा रहा है, यहां तक कि आप पे पत्थर बरसाए जा रहे हैं, सर से खून बह रहा है, लेकिन आप उफ़ भी नहीं कर रहे हैं।

आपको ‘सादिक़’ की जगह ‘मजनूं’ कहा जा रहा है। आपको और आपके मानने वालों को भुका प्यासा खाली हाथ, शहर से बाहर कर दिया जा रहा है। इस पर आप कह रहे हैं, मुझे पैगम्बर नहीं मानते, मत मानो, लेकिन छोटे छोटे बच्चों की ख़ातिर कम से कम एक इन्सानों जैसा बरताव तो करो। मक्का, जो बहुत से खुदाओं का मरकज़ (केन्द्र) होने की वजह से व्यापार का भी मरकज़ है, वहां से एक इन्सान तमाम बुरी और ग़लत परंपराओं को तोड़कर एक इंकेलाब (क्रांति) ला रहा है। वो कह रहा है. लो हक़ (सत्य) आ गया, इसे आना ही था, उसे छाना ही था और बातिल (असत्य) मिट गया, इसे मिटना ही था।

हुजूरﷺ सारी तकलीफ़ों को सहते हुए, खुदाई चट्टान की तरह मज़बूत डटे रहे। हर मुसीबत के आगे आपकी हिम्मत भारी रही। आप अपनी जि़न्दगी का एक लम्हा भी खुद के लिए नहीं छोड़ा। आप पांच वक्त की इमामत फ़रमा रहे हैं। खुतबे दे रहे हैं, वाज़ फ़रमा रहे हैं। दिन भर गली गली घूम घूम कर दीन की तब्लीग़ कर रहे हैं। रातभर रब की इबादत में गुज़ार रहे हैं। वो भी ऐसी इबादत कि खड़े खड़े पांव मुबारक में सूजन आ रही है। इस पर रमज़ान आ गया तो रोज़े पर रोज़े रख रहे हैं और वैसे ही दूसरे रखने लगे, तो कह रहे हैं. तुम में से मेरे मिस्ल कौन?

लोग झुंड के झुंड चले आ रहे हैं, ईमानवाले बन रहे हैं। हुज़ूरﷺ उनसे मिल रहे हैं, उनके हाल चाल पूछ रहे हैं, उनकी इस्लाह कर रहे हैं, उनको दीन सिखा रहे हैं। हुज़ूरﷺ घर में हैं तो घर से, मस्जिद में हैं तो मस्जिद से, गरज़ के जहां भी हैं, वहीं से अपने रब का काम कर रहे हैं।

एक एक को रब की राह दिखा रहे हैं। नया दीन, नए मसले। लोगों को कुछ भी नहीं मालूम। छोटी से छोटी बात हो या बड़ी से बड़ी बात हो, बतानेवाले एक हुज़ूरﷺ ही हैं। किसी ने रब को नहीं देखा, किसी ने जिब्रईल को नहीं देखा, जो देखा सिर्फ़ हुज़ूरﷺ को देखा। हुज़ूरﷺ बोले ये कुरान है, तो वो कुरान है। हुज़ूरﷺ बोले अल्लाह एक है तो अल्लाह एक है। हुज़ूरﷺ बोले ये हक़ है तो वो हक़ है। लोग हैं कि दीवाने हुए जा रहे हैं, हुज़ूरﷺ की बारगाह में निगाहें सजाए बैठे हैं। और आपﷺ हैं कि मानो बताने के लिए तड़प रहे हैं। किसी को ऊंचा सुनाई देता है तो ऊंचा कह रहे हैं, किसी को समझ नहीं आया तो दोबारा समझा रहे हैं। जिसकी जैसी अक़्ल होती, हुज़ूरﷺ उनको उस तरह बता रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो, एक शमा है और बाक़ी सब परवाने हैं। शमा वो है जो अपने महबूब के नूर से जगमग है और परवाने उस नूर को पाने के लिए मचल रहे हैं।

हुज़ूरﷺ यतीमों, मिस्कीनों को गले लगा रहे हैं, जो समाज के ठेकेदारों को नागवार गुज़र रही है। हुज़ूरﷺ उन अरबियों को माफ़ करना सिखा रहे हैं, जिनकी डिक्शनरी में माफ़ करना था ही नहीं। हुज़ूरﷺ एक बुढ़िया का सामान ढो रहे हैं, जो आपको पसंद नहीं करती। ऐसा नहीं की सिर्फ दीन का ही काम कर रहे हैं, बल्कि घर के कामों में भी हाथ बटा रहे हैं। कोई ज़रूरत पड़ी तो खुद ही बाज़ार से सामान ला रहे हैं। आप अपना काम खुद करते हैं, दूसरो पर नहीं टालते।

आप सब कुछ मोहताज ज़रूरतमंदों को दान कर रहे हैं, बल्कि चालीसवां हिस्सा दान करने का कानून बना रहे हैं। अपना पहना हुआ भी दे रहे हैं, अपने हिस्से का खाना भी बांट रहे हैं। खुद के पास नहीं बचा तो दूसरों से दिला रहे हैं। खुद भूख लगने पर पेट में पत्थर बांध रहे हैं, लेकिन दूसरों को खाना खिला रहे हैं, और कह रहे हैं कि जिस खाने वाले का पड़ोसी भूखा सोए वो हम में से नहीं। इस सख़ावत पर लोग रश्क़ कर रहे हैं कि काश हम भी ग़रीब होते। आपकी सख़ावत को देखकर खुदा को आयत नाजि़ल करनी पड़ रही है कि. इस क़दर सख़ावत न करें कि आपको तकलीफ़ पहुंचे। क्योंकि आपकी तकलीफ़ से खुदा को तकलीफ़ होती है।

आप जहां अपने आशिक़ों के सरदार (नेता) हैं, वहीं एक बादशाह भी हैं। आपको दूसरे मुल्कों के बादशाह से राजनीतिक संबंध भी संभाल रहे हैं, उन्हें हक़ की दावत दे रहे हैं। जो मुल्क पर हमला कर रहे हैं, उनसे मुल्क की हिफ़ाज़त कर रहे हैं। साथ ही लोग आपके पास अपने झगड़े ले कर आ रहे हैं, आप उन्हें हल कर रहे हैं।

नमाज़ के साथ वक़्त की पाबंदी सिखा रहे हैं। ज़कात के साथ ग़रीबों की मदद करना सिखा रहे हैं। रोज़ा के साथ अपने नफ़्स (इंद्रियों) को काबू करना सिखा रहे हैं। लोगों को लेकर हज को जा रहे हैं, हज के सारे फ़राएज़ अंजाम दे रहे हैं। कहीं फ़ख्र से चल रहे हैं तो कहीं झुक कर इबादत कर रहे हैं।

लोग दूर दूर से चले आ रहे हैं, आप उनके रहने व खाने का भी इंतेज़ाम कर रहे हैं। आने वालों में जहां अक़्लमंद हैं जो समझदारी से काम लेते हैं तो वहीं जाहिल व उजड्डी लोग भी हैं, आप उन सब को साथ लेकर चल रहे हैं। कह रहे हैं. सब बराबर हैं। न गोरा, काले से बेहतर है, न काला गोरे से।
एक औरत हर रोज़ आप के ऊपर कचरा फेंक रही है। आप बदले में उसे मुस्कराहट दे रहे हैं और जिस दिन वो कचरा फेंकने नहीं आई तो उसके हालचाल पूछने जा रहे हैं। वो कह उठी. हक़ीक़तन आप सरापा रहमत हैं।

आप उस मुक़ाम पर फ़ाएज़ हैं कि खुदा का कलाम वही की शक़्ल में आप पर नाजि़ल हो रही है। उस कलाम को अपने ज़ुबान मुबारक से पढ़कर सुना रहे हैं, लिखवा रहे हैं, याद करवा रहे हैं और ताक़यामत सीनों में महफूज़ कर रहे हैं। आप चारों तरफ से दुश्मनों से घिरे हुए हैं, लेकिन उन्हें कुरान पढ़कर सुना रहे हैं, मुहब्बत सिखा रहे हैं।

आपकी सिखाई मुहब्बत का ये असर हुआ कि आपको क़त्ल करने आए, हज़रत उमरؓ आप पर ही फि़दा हो रहे हैं। आपके एक दांत टुटने पर हज़रत उवैस करनीؓ अपने सारे दांत तोड़ रहे हैं। गरज़ के लोग आपके दीवाने हुए जा रहे हैं, आप पर सब कुछ कुर्बान किए जा रहे हैं।

आप रब की बारगाह में इतना अस्तग़फ़ार कर रहे हैं, इतना गिड़गिड़ा रहे हैं कि आंसूओं से दामन भीग रहा है। जबकि आप मासूम हैं, आपसे कोई गुनाह हुआ ही नहीं। दुनिया में रहते हुए भी दुनियादार न रहना, कोई हुज़ूरﷺ से सिखे।

हमारे लिए इतना सब करने के बाद भी, आख़री खुतबे में लोगों से पूछ रहे हैं. क्या मैंने अपना फ़र्ज़ पूरा किया? लोगों ने आंसूओं के साथ कहा हां तो फ़रमाते हैं. ऐ अल्लाह तु ही बता, जो जि़म्मेदारी तुने मुझे सौंपी थी, वो पूरी हुई? खुदा कहता है. हां, हमने दीन को मुकम्मल कर दिया और अपनी सारी नेअमतें तुम्हें दे दी।

कुरबान मैं उनकी बिख़्शश पर,

मक़सद भी ज़ुबां पर आया नहीं।

बिन मांगे दिया और इतना दिया,

दामन में हमारे समाया नहीं।।